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________________ चतुथ अध्याय ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ rrrwwwwwwwwwwe सामायिक धर्म एव अनेकान्त दृष्टि का उपदेश दिया। भगवान. महावीर अन्तिम अर्थात् २४ वे तीर्थंकर थे। इसलिए वर्तमान मे उपलब्ध आगम भगवान महावीर द्वारा परूपित माने जाते है। क्योकि वे ही हमारे निकट काल मे हुए है। . . . . इस तरह हम जैनागमो एव जैन इतिहास की दृष्टि से देख चुके है कि जैनधर्म कोई अभिनव धर्म नहीं, अपितु प्राचीन धर्म है और वह भी इतना प्राचीन है कि उसके मूल स्रोत तक पहुचने की शक्ति किसी भी ऐतिहासिक व्यक्ति मे नही है। अब हम जैनेतर ग्रथा एव विचारको के आधार पर विचार करेगे कि उनकी दृष्टि में भी जैनधर्म अर्वाचीन - नही प्राचीन ही है। - - - - - : वैदिक परपरा का विश्वास है कि वर्तमान मे उपलब्ध साहित्य मे वेद सबसे प्राचीन है । हम यहा इस बात की सत्यता-एव असत्यता को जाचने मे समय न लगाकर, इस बात पर विचार करेगे -कि उसमे. भी अपने युग के पूर्व से चले आ रहे जैनधर्म के सवध मे उल्लेख मिलता है या नही? क्योकि यदि वेद प्राचीनतम साहित्य है, तो उसमें उल्लिखित धर्म एव धार्मिक व्यक्ति उससे भी प्राचीन स्वत, सिद्ध हो जाते है। क्योकि प्रत्येक -लेखक अपने ग्रथ, मे; उन्ही-व्यक्तियो, धर्मों एव रीति-रिवाजो के सवध मे लिखता है, जो उसके समय से पहले हुए हो या उसके काल में विद्यमान हो। इसी अपेक्षा से हम यह निसन्देह कह सकते है कि जैनधर्म वेदो से भी प्राचीन हैं । क्योंकि वेदों मे भी जैनधर्म एवं उसके उपदेष्टा तीर्थंकरो का उल्लेख मिलता है। और यह 'वातं प्राय पूर्वीय एव पाश्चात्य सभी निष्पक्ष विद्वानो एव ऐतिहासिको को मान्य है कि जैनधर्म वैदिक धर्म की शाखा नहीं, बल्कि एक स्वतत्र एव मौलिक धर्म है और वह वेद युग से भी पहले भारत मे विद्यमान h
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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