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षष्ठम अध्याय
को प्राप्त करता है । इस तरह श्रात्मा मे एक रूप का नाश और दूसरे रूप का उत्पाद पाया जाता है। इसी कारण जैन दर्शन आत्मा को "कथंचित् अनित्य स्वीकार करता है। आत्मा कथचित् अनित्य है. इस वाक्य में प्रयुक्त कथचित् शब्द आत्मा की नित्यता को भी व्यक्त कर रहा है । कथचिंत अनित्य होने पर भी आत्मा नित्यता से युक्त है। नर, तियंच प्रादि किसी भी अवस्था को प्राप्त श्रात्मा सदा श्रात्मा ही रहता है; अपने मूल स्वरूप को नही छोड़ता, वह अनात्मा या जड़ नही
वन जाता ।
ऊपर के विवेचन से हम यह प्रकट करना चाहते हैं कि संसार मे जीव और अजीव ये दो द्रव्य अनादि है । सदा से चले आ रहे हैं । इन को किसी ने बनाया नहीं है । स्वयं वैदिक परम्परा ईश्वर, जीव, प्रकृति इनको अनादि स्वीकार करती है । श्रत. यह कहना कि ससार में जितने भी पदार्थ है वे सब किसी के द्वारा बनाए गए है, 'ठीक नही है । इसीलिए जैन दर्शन कहता है कि यह जगत अनादि है, भूतकाल मेथा, वर्तमान मे है, और भविष्य मे रहेगा। इस का कभी बीज-नाश नही होगा । अवस्थान्तरित होता हुआ भी यह सदा से विद्यमान है, और सदा रहेगा ।
ससार अनादि है, यह किसी की रचना नहीं है। यह मान्यता है, जैन दर्शन की । वस्तुस्थिति भी यहीं है ।" यदि यह मान लिया जाए, कि ससार को बनाया गया है तो प्रश्न उपस्थित होता है-'ईश्वर को किसने बनाया ? जिसने ईश्वर की रचना की है, उस की रचना किस ने की है ? कहा जाता है कि ईश्वर सकता है ? इस पर हम कह सकते ससार श्रनादि है, इसे कौन बना सकता है ! कुछ क्षणों के लिए मान लिया जाए कि ईश्वर ने संसार को बनाया है, तो हम पूछते हैं कि ईश्वर ने ससार को किंस तत्त्व
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तो
अनादि है, उसे कौन बना
हैं
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