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________________ प्रश्न के उत्तर २५२ नही मानते, सर्वव्यापक नही मानते, कर्म का फल प्रदाता नहीं मानते, इत्यादि । और हम स्वयं इस बात को मानते है कि जैनदर्शन ग्रनीश्वरवादी है | क्योकि वह वैदिक परंपरा एवं शाब्दिक अर्थ के अनुसार श्रात्मा एव ससार पर ईश्वर के स्वामीत्व को नही स्वीकार करता । और यह सत्य भी है । इस की सच्चाई पर हम ग्रागे विचार करेंगे । यहा तो हम इतना ही बताना चाहते है कि जैनदर्शन परमात्मा को अवश्य मानता है और वह भी एक नही अनन्त परमात्मा को मानता है और साथ मे इस बात पर भी जैनो का दृढ विश्वास है कि आत्मा से ही परमात्मा वने है, वनते हैं और भविष्य मे भी बनेगे । ग्रत. हम कह सकते हैं कि जैनदर्शन ने ईश्वर शब्द का भले ही प्रयोग न किया हो, परन्तु उसके शुद्ध एव निरावरण स्वरूप की जैनो ने ही स्वीकार किया है, अन्य दार्शनिक एव विचारक वहा तक नही पहुच पाए हैं । प्रश्न- क्या ईश्वर को जगत्कर्ता मानना चाहिए ! उत्तर- नही, कदापि नही । क्योकि परमात्मा सर्व कर्मो से एव कर्मजन्य उपाधियों से रहित है । उस मे राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह- तृष्णा यदि दोपो का सर्वथा प्रभाव है । ऐसी स्थिति मे उसे जगत का निर्माता माना जाए तो उसमे कई दोष मानने पड़ेगे ? पहला प्रश्न यह होगा कि जब वह शरीर एव कर्म जन्य उपाधि रहित है, तब वह जगत का निर्माण किस से चीर कैसे करता है ? हम देखते हैं कि कुभकार अपने हाथो के द्वारा विभिन्न आकार-प्रकार के वर्तन बनाता है । यदि ईश्वर भी कुभकार की तरह विभिन्न श्राकू। तियो एवं प्रकृतियो के जोवधारी एव निर्जीव पदार्थों का निर्माण करता है, तो फिर मानना होगा कि वह भी कुभकार की तरह सावयव है । क्योकि बिना अवयव के अवयव युक्त पदार्थो का निर्माण हो नही - 1
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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