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________________ १३७ द्वितीय अध्याय ग्रहण हो कर एक स्थान से दूसरे स्थान को पहुचाया जाता है और हमारी कर्णेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि शब्द पुद्गल द्रव्य है और मूर्त है। किन्तु आकाश अमूर्त है, इसलिए शब्द उसका गुण नहीं बन सकता है और न उसकी तन्मात्रा से आकाग का उद्भव ही हो सकता है। क्योकि मूर्त पदार्थ अमूर्त द्रव्य का न तो गुण बन सकता है और न वह अमूर्त को उत्पन्न ही कर सकता है। जव शब्द मूर्त है, पुद्गल है, तो उसकी तन्मात्रा भी तद्रूप ही होगी। अत उससे अाकाश की उत्पत्ति मानना अनुभवगम्य भी नहीं है। शब्द के मुख्य रूप से दो भेद है- १ प्रयोगज और २ वैससिक। जो शब्द यात्मा के प्रयत्न से उत्पन्न होता है, वह प्रयोगज और जो विना प्रयत्न के उत्पन्न होता है वह वैस्रसिक कहलाता है। मेघो-वादलो को गर्जना वैस्रसिक है । प्रयोगज शब्द के ६ प्रकार बतलाए गए है- १ भापा, २ तत, ३ वितत, ४ घन, ५ शुषिर और ६ सघर्ष । भाषा-मनुष्य आदि की व्यक्त और पशु-पक्षी आदि की अव्यक्त ऐसी अनेकविध भापाए है । २ तत-चमडा लपेटे हुए अर्थात् मृदग, पटल आदि का शब्द । ३ वितत-तार युक्त वीणा, सारगी आदि वाद्यो का शब्द । ४ घन-झालर, घटा आदि का शब्द । ५ शुषिर-फूक कर वजाए जाने वाले शख-वशी आदि का शब्द । ६ सघर्ष-लकडी या डडे आदि के संघर्ष से होने वाला शब्द । वन्ध वध के विषय मे हम पिछले पृष्ठो पर लिख चुके हैं। शब्द की तरह बंध भी दो प्रकार का है-वैस्रसिक और प्रायोगिक । पहला आदिमान - तत्त्वार्थ सूत्र (प सुखलाल सधवी) पृ. २०७
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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