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नवम अध्याय
नरक - स्वर्ग आदि परोक्ष लोक नही है । अत आत्मा मर कर नरकस्वर्ग में नही जाती और न वह पाप-पुण्य से आवद्ध होती है । इसलिए मनुष्य को धर्म-कर्म करने की आवश्यकता नही है । उसे आनन्द पूर्वक अपना जीवन विताना चाहिए। यह जीवन बड़ी कठिनता से मिला है, अतः खाने-पीने एव ऐश-आराम मे सदा व्यस्त रहना चाहिए । भोग-विलास में निमग्न रहना चाहिए। इस मत के एक विचारक ने कहा भी है-
" यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृत पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहिनः पुनरागमणः कुतो ॥
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इससे स्पष्ट होता है कि चार्वाक दर्शन पूर्णतः भौतिकवादी है । वह प्रत्यक्ष मे दिखाई देने वाले शरीर एव भोगो के अतिरिक्त किसी वस्तु को वास्तविक नही मानता है । इसे प्रत्यक्ष के अतिरिक्त कोई भी प्रमाण मान्य नही है ।
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जैन दर्शन
जैन दर्शन पाच भूतो के सघात से बने हुए शरीर को ही आत्मा नही मानता है । आत्म विचारणा प्रकरण मे हम इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि आत्मा शरीर, इन्द्रिय एव मन से अतिरिक्त स्वतन्त्र द्रव्य है और शरीर आदि का विनाश होने पर भी उसका नाश नही होता है । वह सदा-सर्वदा अपने स्वरूप मे स्थित रहता है । कभी भी, किसी भी अवस्था मे आत्मा के असख्यात प्रदेशो मे थोड़ा भी अन्तर नही आता । उनकी संख्या न कभी बढती है और न घटती है । अनन्त काल तक पुद्गलो के साथ सवध रहने पर भी आत्मप्रदेशो की सख्या एव ग्रात्मा के स्वभाव मे कोई अन्तर नही श्राता । इमंलिए आत्मा
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