Book Title: Prashno Ke Uttar Part 1
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 374
________________ ३५१ f मवधं वेद को प्रमाण मानने या नही मानने से नही है । यह परिभाषा 'सम्प्रदायवाद के विषाक्त युग मे बनाई गई है । वस्तुत' 'जो विचारक 'ग्रात्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व एवं परलोक के अस्तित्व को नही मानते, वे नास्तिक और जो इनमें विश्वास रखते है वे नास्तिक कहलाते हैं । 'इस दृष्टि से जैन दर्शन नास्तिक नही, बल्कि आस्तिक दर्शन है । इस बात को हम ग्रास्तिक नास्तिक विवेचन मे स्पष्ट कर चुके है। अब हम चार्वाक एव जैन दर्शन मे समानता है या नही? इस पर विचार करेंगे। इस तुलनात्मक विवेचन को प्रारंभ करने से पहले चार्वाक दर्शन को समझ लेना अवश्यक है । इसलिए पहले हम चार्वाक दर्शन की मान्यता पर विचार करेगे । E 1 1 www. नवम अध्याय JV INV "PAT चार्वाक दर्शन चार्वाक दर्शन पुण्य-पाप आदि तत्त्वो को नहीं मानता । वे इस बात को भी स्वीकार नहीं करते कि व्यक्ति के द्वारा की जाने वाली किसी भी क्रिया का इस लोक के प्रतिरिक्त परलोक मे फल मिलता है। वे समस्त तत्त्वो का चर्वण कर जाते हैं, इसलिए उन्हे चार्वाक कहते है * । इनकी भाषा लोक रुचि को लिए हुए होती है, इस तरह भापा अपार्थं श्रुतिवाक्याना दर्शयल्लोक गर्हितम् कर्म-स्वरूपत्याज्यत्वमत्रे च प्रतिपाद्यते ।। सर्वं कर्म परिंम्रशान्नेष्कर्म्य तत्र चोच्यते । परमात्मजीवयोरैक्य मयात्र प्रतिपाद्यते ।। 1 - साख्यप्रवचन भाष्य, १.१ भूमिका; न्यायकोश पृ ३७२१ * चर्वन्ति, भक्षयन्ति तत्त्वतो न मन्यन्ते पुण्यपापादिक परोक्ष वस्तुजातमिति चार्वाका. । 4 -- गुणरत्न सूरि ।

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