Book Title: Prashno Ke Uttar Part 1
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 354
________________ m ~~ ~ ~ ~ ~~ ~ ~ ३३१ प्रष्टम अध्याय कार करते है * । उनका कहना है कि यदि प्रात्मा नित्य है, तो फिर वह अनन्त काल तक एक रूप रहेगा, उस मे कोई परिवर्तन नही होगा । अत उसमे बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था नही घट सकेगी। क्योकि वन्ध विचारो की, भावो की परिणति के अनुसार होता है और उसका क्रिया के साथ सबंध है। क्रिया सदा एक रूप नही रहती और न भावो. परिणामो एव विचारो को धारा ही एक रूप रहती है। अतः आत्मा मे बंध मानते हैं, तो फिर वह परिणमनशील हो जायगा । और वह राग-द्वष, मोह आदि विभिन्न विकारो से युक्त हो जायगा। प्रत फिर हम यह नहीं कह सकेगे कि यह वही आत्मा है । प्रात्मा को नित्य मानने मे दूसरी कठिनाई यह उपस्थित होगी कि वह वधन युक्त है तो सदा वधन युक्त ही रहेगी। वह बधन से कभी भी मुक्त नहीं हो सकेगी और उसका पुनर्जन्म भी नही हो सकेगा। क्योकि उसमे आत्मा को एक स्थिति नही रहती, उसमे परिवर्तन आता है। और उसे एकान्त नित्य मानने से उसमे कृत-कारित्व नही घट सकेगा,अतः आत्मा नित्य नही है । अव आत्मा के अस्तित्व को मानने मे यह कठिनाई है कि ससार मे प्रिय वस्तु को लेकर सारे दु.ख उत्पन्न होते है। जिस समय मनुष्य को आत्मा सर्व-प्रिय होती है,उस समय मनुष्य अपनो आत्माकी तुष्टिके लिए सुख-साधन सामग्रिया जुटाने के लिए अहकार का अत्यधिक पो. षण करने लगता है, परिणाम स्वरूप मनुष्य के मन मे उत्तरोत्तर दुख की अभिवृद्धि होती है। प्रत. प्रात्मा नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ * तत्त्वसग्रह, पृष्ठ ७९-१३० (मात्म परीक्षा प्रकरण)। www.mmmmmwwwwwwwwwwwwwwww~~

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