Book Title: Prashno Ke Uttar Part 1
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 370
________________ प्रष्टम अध्याय जीवन मे आचार-विषयक अनेको मतभेद हैं। : - . . . . - बौद्धसाधु मांस खाते है। इनका विश्वास है कि जो मांस वौद्धः साधुप्रो के निमित्त तैयार नहीं किया गया है, उस मांस को खाने में . कोई दोष नहीं है। इसीलिए जापान मे बौद्धमासविक्रेतायो की दुकानों पर "Not kindle for you" अर्थात् - " यह मास आपके लिए तैयार नही किया गया है। इन शब्दो से अकित बोर्ड लगे रहते हैं। इनके लगाने का यही उद्देश्य होता है कि बौद्ध साधु निर्दोष समझ कर यहा से मास ले सके । स्वय महात्मा बुद्ध के जीवन मे,ऐसे.प्रसग आएहैं, जिनमे उन्होने मासाहार का सेवन किया है, महात्मा बुद्ध की मृत्यु ही सूअर का मास खाने से हुई थी । किन्तु जैन साधु मासाहार' के सर्वथा त्यागी होते हैं, मास तो क्या वे सचित्त वनस्पति को भी नही छूते हैं। कच्ची सब्जी ले स्पर्शमात्र से वे तो हिंसा को कल्पना" करते हैं। ऐसे अहिंसक जीवन मे मासाहार का तो प्रश्न ही पैदा नहीं: होता। जनसाधु तो मांसाहार से सर्वथा दूर रहते ही हैं, किन्तु जैन-- गृहस्थ भी इसे कभी अपने उपयोग मे नही लाते है। जैनधर्म मासाहार, को अभक्ष्य और हिंसापूर्ण आहार बतलाता है । जैनधर्म में मासाहार का बडी दृढता से विरोध किया गया है । करुणा के सागर भगवान ने इसे कुव्यसनो मे माना है और नरक का कारण बतलाया है । जैन वाड मय के प्रसिद्ध सूत्र श्री स्थानागसूत्र के चतुर्थ स्थान मे लिखा है कि प्राणी महारभ करने से, महापरिग्रह रखने से, पञ्चेन्द्रिय जीवो का वध करने से, और मास का भक्षण करने से नरक में जाता है। वौद्धधर्म और जैनधर्म मे कितनी भिन्नता है यह २ . . . जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है । इस मे सभी प्रकार के पापो की. विरक्ति पर विशेष लक्ष्य दिया गया है। मुनियो के लिए जीवहिंसा,

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