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प्रश्नो के उत्तर
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असत्य, चोरी, ब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि का सर्वथा त्याग बतलाया गया है । उन्हे मन, वचन और काया से न स्वय हिंसा करनी चाहिए और न दूसरो से करानी चाहिए, और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करना चाहिए। कृत, कारित और अनुमोदन करने की यह भावना सभी व्रतो के लिए है । मुनिव्रत धारण करते समय व्यक्ति को प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि " सव्वं सावज्ज जोगं पचक्खामि " अर्थात् मैं सभी सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग करता हूं, किन्तु बौद्धधर्म ने निवृत्ति धर्म को इतना महत्त्व नहीं दिया ।
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जैनधर्म ने आत्मा, परमात्मा, पुण्य, पॉप, बन्ध, ' निर्जरा आदि जिस किसी भी तत्त्व को पकड़ा है, उसके स्वरूप को पूर्णरूप से जनता के सामने रखा है । भगवती सूत्र मे वर्णित गंगा अनगार के भागें अपनी विशेषता आप ही रखते हैं, उन्हें समझना कोई खाला जी का घर नही । जितना सूक्ष्म, गंभीर और तात्त्विक विवेचन जैनधर्म ने अध्यात्म जगत को दिया है, इतना बौद्धधर्म ने तो क्या किसी भी जैनेतर धर्म ने नही दिया ।
जैनधर्म का अधिक झुकाव पदार्थों के स्वरूप के अन्वेषण और अनुसन्धान की ओर रहा है, आत्मा के अनादिकालीन कर्ममल की विशुद्धि के लिए, अहिंसा, सयम और तप की आराधना की और रहा है, जैनधर्म का दृष्टिकोण अलौकिक रहा है. आत्मसुधार का रहा है, लोकिक जीवन की ओर जैनधर्म ने विशेष महत्त्व नही दिया । इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनधर्म लौकिक जीवन की सर्वथा उपेक्षा करता है, लौकिक आचार विचार के उत्थान की ओर भी उसने ध्यान तो दिया है, परन्तु उतना नही, जितना कि लोकोत्तर आचार-विचार की भोर दिया है। इसके विपरीत बौद्धधर्म का झुकाव लौकिक श्राचार