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अष्टम अव्याय
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जैसे दीपक की ज्योति प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहने पर भी सदृश
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परिवर्तन के कारण एक प्रखण्ड प्रकार-सी प्रतीत होती है । उसी तरह बाल, युवा और वृद्ध अवस्था में विज्ञान में प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहने पर भी समान परिवर्तन के कारण विज्ञान ( आत्मा ) का एक ग्रखण्ड रूप से ज्ञान होता है । परन्तु, वस्तुतः वह एक रूप है नही ! विज्ञान प्रतिक्षण बदलता रहता है। पूर्व क्षण स्थित विज्ञान उत्तर क्षण रूप विज्ञान को उत्पन्न करके नष्ट हो जाता है । इस तरह विज्ञानप्रवाह (चित्त सन्तति) के मानने से हमारा काम चल जाता है, श्रतः आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने की क्या श्रावश्यकता है ?
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वौद्ध आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को नही मानते। फिर भी पुनर्जन्म आदि को मानते हैं। उनका कहना है कि दूसरे भव में नाम - और रूप उत्पन्न होता है । परन्तु, वह नाम और रूप वह नही है, जो मृत्यु के समय था । मृत्यु के समय स्थित विज्ञान सस्कारो की दृढता से गर्भ मे प्रविष्ट हो कर फिर से दूसरे नाम और रूप से सबद्ध हो जाता
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The unity, the identity, the individuality and the immateriality that appear in the psychic life are thus accounted for as phenomenal and temporal facts exclusively and with no need of reference to any more simple or substantial agent than the present thought or section of stream...... But the Thought is perishing and not an immortal or incorruptible thing. Its successors may continuously succeed to it, resemble it and appropriate it, but they are not the original Thoughts, whereas the soul substance is supposed to be a fixed unchanging thing.
- The Principles of Psychology, P 344-45.