Book Title: Prashno Ke Uttar Part 1
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 362
________________ २३९....... अष्टम अध्याय समस्या की उलझन बनी रहेगी। फिर तो प्रात्मा का स्वर्ग-नरक: आदि गतियो मे गमन भी नही हो सकेगा और न उसका वन्ध होगा, और न मुक्ति ही। वह जिस गति एव स्थिति में स्थित है, उसी में वनी रहेगी। इस लोक मे भी एक स्थान से दूसरे स्थान मे आ जा नहो सकेगी । परन्तु ऐसा होता है, वह गमनागमन करती है । इसलिए एकांत नित्यवाद यथार्थता से दूर है। उसे मानने पर प्रात्मा का कृतकारित्व नहीं रह जाता है। जो दोष एकान्त नित्यवाद मे आते हैं, वे ही दोष आत्मा को एकात क्षणिक मानने मे भी आते हैं। क्षणिकवाद को दृष्टि से प्रतिक्षण, नई आत्मा का जन्म होता है । पहले क्षण जो आत्मा थी उसका नाश हो जाता है और दूसरे क्षण अभिनव प्रात्मा की उत्पति होती है। इससे स्पष्ट है कि द्वितीय क्षण उत्पन्न होने वाली प्रात्मा प्रथम क्षण मे स्थित प्रात्मा से भिन्न है। यदि भिन्न नही है वही है, तो फिर आत्मा नित्य हो जायगी । और उसे भिन्न मानते है तो यह प्रश्न उठता है कि जो कर्म प्रथम क्षण स्थित आत्मा ने किया है, उसका फल कौन भोगेगा? यदि कहे कि दूसरे क्षण स्थित प्रात्मा भोग लेगो, तो यह कहना उचित नहीं है। क्योकि कर्म कोई करे और उस का फल दूसरे को मिले, यह तो व्यवहार से भी विरुद्ध है । यदि बाप चोरी करेगा तो उसका दण्ड उसकी सन्तान को नही, उसे ही मिलेगा। यदि कहे कि उसका फल ही नही मिलता तो फिर क्रिया निष्फल हो जायगी और ऐसा होता नहीं। इसी तरह बन्ध मोक्ष का भी प्रश्न उपस्थित होगा । क्योकि जब आत्मा में नित्यता है ही नही तो फिर कर्म का वन्ध किसे होगा और उसे तोड़ेगा भी कौन ? क्योकि कर्म करने वाला श्रात्मा तो नष्ट

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