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प्रश्नो के उत्तर ......३३८ लोक-परलोक आदि के सवध में पूछे गए प्रश्नो का स्पष्ट उत्तर दिया
इस बात को हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि जैनधर्म को एकान्तवाद मान्य नहीं है। वह न तो वैदिक परम्परा मान्य कूटस्थ (एकांत) नित्यत्व को ही ठीक मानता है और न एकान्त क्षणिकत्व को ही सत्य मानता है । क्योकि प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्म या गुण युक्त है । एक अपेक्षा से उसका एक पहलू है, तो दूसरी अपेक्षा से दूसरा पहलू भी है। जैसे सिक्के की दोनो बाजू सत्य हैं-एक तरफ अपने राष्ट्र की सरकार द्वारा मान्य छाप है, तो दूसरी ओर उसके बनने की तारीख एवं सिक्के का मूल्य अकित होता है। ये दोनो पहलू सिक्के के हैं। किसी एक को महत्त्व नहीं दिया जा सकता है और एक अस्तित्व में उस सिक्के का मूल्य भी नहो रह जाएगा। इसी तरह प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्म वाला है। अतः हम एकान्त दृष्टि से उसके यथार्थ स्वरूप को नही जान सकेंगे।
आत्मा को कटस्थ नित्य मानने वाले मत का खण्डन करते हए वौद्ध विचारको ने यह तर्क दिया है कि यदि प्रात्मा को कूटस्थ नित्य मानेंगे तो उसमे कृत-कारित्व नही घट सकेगा। क्योकि जो व्यक्ति कूटस्थ नित्य होता है, उसमे किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं पाता। वह दीवार की तरह अपरिवर्तित स्थिति मे बना रहता है। अत वह कुछ कार्य नहीं कर सकेगा। यदि कहो कि प्रकृति कार्य करती है। तो प्रश्न होगा कि प्रकृति द्वारा किए गए कार्य का आत्मा को फल कैसे मिलेगा? यह सभव नही कि कार्य कोई करे और फल दूसरा भोगे। यदि यह मान भी ले कि प्रकृति ही उसका फल भोग लेती है। तव भी