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सप्तम अध्याय
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जो भी श्रम करता है, योग्य श्रध्यापक के सकेतानुसार चलता है, वही धीरे-धीरे उन्नति करता हुआ अन्त मे शिक्षक या प्रोफेसर के पद को ग्रहण कर लेता है | किसी विशेष जाति, प्रात या वर्ग का व्यक्ति हो शिक्षक की इस उच्चता को पा सकता है, जैसे यह कोई सिद्धात नही है, ऐसे ही यह भी कोई सिद्धात नही है कि केवल परमेश्वर श्रात्मा ही सर्वज्ञ हो सकती है, अन्य नहीं । जैन धर्म कहता है कि प्रत्येक भव्य मात्मा सर्वज्ञता प्राप्त कर सकता है। मक्ति से जीव वापिस नहीं आता
श्रार्यसमाज की मान्यता है कि जीव मुक्ति मे सदा नही रहता है, कुछ समय वहा का आनन्द भोग कर फिर ससार मे लौट आता है । इस मान्यता की पुष्टि मे उक्त समाज का कहना है कि कोई मनुष्य मीठा खाता ही चला जाए तो उसको वैसा सुख नही होता, जैसा कि सब प्रकार के रसो को भोगने वालो को होता है और उसका विचार है कि मुक्ति जेल है, कौन ऐसा व्यक्ति है जो जीवन भर जेल मे बंद रहना स्वीकार करे ! इस के अलावा, उसका यह भी कथन है कि यदि मुक्त जीव मुक्ति से वापिस न लौटे तो मुक्ति स्थान मे भीडभडक्का हो जायगा और यह ससार जीवो से किया समय विल्कुल खाली हो जायगा । किन्तु जैनवर्म का ऐसा विश्वास नही है । जैन धर्म का सिद्धांत है कि मुक्त जीव मुक्ति मे वापिस नही आता । यह मुक्ति को ' श्रपुनरावृत्ति" कहता है । अपुनरावृत्ति का अर्थ है -- जहा से वापिस न लौटना पड़े। इसलिए जैनधर्म कहता है कि मुक्त जीव मुक्ति मे ही सदा विराजमान रहते है।
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जीव के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादिकालोन है । श्रनादिकाल से जीव कर्मो से घिरा हुआ है । कर्मों के कारण ही यह जीव चौरासी लाख योनियों मे जन्म-मरण कर रहा है । ये कर्म तपस्या के द्वारा