Book Title: Prashno Ke Uttar Part 1
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 342
________________ ३१९ सप्तम अध्याय पर पड़ रही है। पर क्या वहा नेत्र ज्योतियो का भीड़ भड़क्का होता है, उससे नेता को वाधा पडती है ? कभी नही । नेत्र-ज्योति परमाणुपुञ्ज है, पौद्गलिक है. तथापि उसका भीड-भडक्का नहीं होता और वह किसी के लिए वावक नही बनती,फिर मुक्तात्माए तो ममूर्तिक है, अरूपी है, इनके भीड़भडक्के को तो कल्पना ही कैसे की जा सकती मुक्ति मे लगातार जीवो के जाने से ससार खाली हो जायगा, ऐसा समझना ठोक नही है, क्योकि जीव अनन्त है, इनका कभी अन्त नहीं पा सकता। जोवो को अनन्तता के सम्बन्ध मे इस पुस्तक के प्रात्म-मीमासा नामक अध्याय मे ऊहापोह किया जा चुका है । पाठक उसे देखने का कष्ट करे। कम-बाद कर्मवाद जैनधर्म की महत्त्वपूर्ण देन है। इसने कर्मवाद का जितना सूक्ष्म और गभीर विवेचन अध्यात्म जगत के सन्मुख उपस्थित किया है, इतना किसा अन्य दर्शन ने नहीं किया। वैदिक धर्म मे कर्मवाद का वर्णन तो है, किन्तु ऐसा नही, जैसा कि जैन धर्म मे है। वैदिक धर्म केवल अदृष्ट सत्ता या क्रिया को कर्म समझता है, किन्तु जैनधर्म उसे पौद्गनिक मानता है । इसका विश्वास है कि व्यक्ति के प्राचार-विचार से कर्मयोग्य पुद्गल अात्मा की ओर आकर्षित होते हैं और वे प्रात्मा से सम्बन्धित हो कर कर्म का रूप ले लेते हैं। कर्म की मूल प्रकृतियो तथा उत्तर प्रकृतियो के विस्तृत वर्णन के अलावा ..जैनधर्म ने प्रत्येक कर्म के बन्ध कारणो का भी बड़ी विशदता के साथ विवेचन किया है। जनसाहित्य का आधे से ज्यादा भाग कर्मवाद के विवेचन ने रोक रखा है । कर्म-वाद को जैन-धर्म का यदि प्राण कह दें तो यह उचित ही

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