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अष्टम अध्याय
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रोध सूचन नहीं मिलता है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म वौद्ध धर्म से बहुत प्राचीन है। इस सबंध मे हम पीछे विस्तार से बता चुके हैं। वेदों, भागवत एव अन्य वैदिक ग्रन्थो में जैनधर्म के अस्तित्व का वर्णन मिलता है और इन्ही के आधार पर पाश्चात्य एवं भारतीय ऐतिहासिक विद्वानो ने इस बात को स्पष्ट शब्दो गे स्वीकार किया है कि जैन धर्म वदिक परम्परा के मान्य ग्रन्थो से भी पहले व्यवस्थित रूप से प्रचलित था और इस काल के आदि तीर्थकर ऋषभदेव को भी स्वीकार कर लिया गया है । डॉ. जेकोवो का स्पष्ट अभिमत है-- "विष्णु पुराण और भागवत के इन कथानको मे कुछ ऐतिहासिकता है, जो ऋषभदेव को जैनो का पहला तीर्थकर सिद्ध करती है।"
इसके अतिरिक्त जेनेतर दार्शनिको ने भी जैन दर्शन और वौद्ध दर्शन को अलग-अलग स्वीकार किया है। व्यास रचित वेदांत सूत्र के द्वितोय अध्याय के १८वे से ३२वे सूत्र तक बौद्ध दर्शन का खडन किया और उसके आगे "नकास्मिन्नम भवात्", "चात्याऽकात्स्न्यं", "न च पर्यायादप्यविरोधो विकारादिभ्य." तथा "अन्त्यावस्थितश्चोभयनित्यत्वादविशेप." इन चार सूत्रो मे जैनधर्म का प्रतिवाद किया है। सर्व दर्शन सग्रह मे माधवाचार्य ने १६ दर्शनो में जनदर्शन और बौद्ध दर्शन को भिन्न-भिन्न लिखा है । वैभापिक, सौत्रान्तिक,योगाचार और माध्यमिक वौद्धो के इन चार भेदो,जनो का कही नामोल्लेख नही है। बौद्ध ग्रन्थो मे भी निग्रंथ धर्म- “जो जैनधर्म का ही परिसूचक शब्द
+ इण्डि, एण्टी. (डॉ. जकोबी) पुस्तक्९, पृष्ठ १६११ ६ वही (जेकोबी) पृष्ठ १६३