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सप्तम अध्याय
है । धर्म को भग करने से कभी पुण्य नहीं हो सकता। धर्म के घात से तो पाप ही हुआ करता है । अत. जैन धर्म का कहना है कि वैदिकधर्म जो " अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' यह कह कर पुत्र उत्पन्न करने की प्रेरणा देता है, तो वह ससार को पापमय उपदेश देता है । ऐसे पापोपदेशक वाक्य जिस शास्त्र मे होते हैं उसे तो शास्त्र ही नही कहा जा सकता। जीवन को शासित करने वाला, कुपथ से हटा कर सुपथ मे चलाने वाला शास्त्र हो वास्तव मे शास्त्र कहलाने को योग्यता रख सकता है, अन्य नही। ___यदि " अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' इस सिद्धात को मान लिया जाए तो जो ऋषि-महर्षि और अनेक तीर्थंकर कुमार अवस्था मे ही दीक्षित हो जाते है, साधु बन जाते हैं, उनकी क्या दशा होगी ? उन की तो कभी गति हो ही नही सकती, और उक्त सिद्धात के अनुसार न उन की गति कभी सभव ही है। ऐसा मान लेना कहा तक ठीक है कि आजोवन ब्रह्मचर्य की पालना करने वाले महापुरुषो को तो सद्गति प्राप्त न हो और विषय-भोग भोग कर पुत्र को उत्पन्न करने वाले सुगति प्राप्त करे ? कोई भी वुद्धिशाली व्यक्ति इस बात को कभी मानेगा नहीं, अन्य की वात दूसरी है। .
मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है वैदिक धर्म मे सनातनधर्मी और आर्यसमाजी ये दो वर्ग पाए जाते हैं। आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द जी सरस्वती थे । आर्यसमाज का विश्वास है कि जीव सर्वज्ञ नही हो सकता, सर्वज्ञ तो केवल एक परमेश्वर है । किन्तु जैनधर्म कहता है कि प्रत्येक भव्य आत्मा ज्ञानाच्छादक कर्मों का नाश करने पर तथा प्रात्मज्ञान के सर्वथा अनावृत्त हो जाने पर सर्वज्ञ पद को उपलब्ध कर सकता है । सर्वजता