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प्रश्नो के उत्तर
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विकारो से होता है, जब विकार ही समाप्त हो गए तो फिर कर्म-वध कैसे हो सकता है ? वीज के सर्वथा जल जाने पर जैसे उस मे अकुर की उत्पत्ति नही होती वैसे कर्म-रूपी वीज के जल जाने पर ससाररूप (जन्म-मरण रूप) अकुर पैदा नही हो सकता । ईश्वर को सर्वथा निष्कर्म मान लेने पर उसका अवतार कैसे सभव हो सकता है ? जव वह निष्कर्म है तो वह नव मास अन्वेर कोठरी में उलटा क्यो लटके ?
ईश्वर सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, सवंगक्तिसम्पन्न है, तथा वीतरागो है, फिर वह भला नीचे क्यो आए ? क्यो मत्स्य, वराह और मनुष्य आदि का रूप धारण करे? इसके अतिरिक्त,भगवान को अवतार लेने की जरूरत ही क्या है ? क्या वह जहा वैठा है, वही से अपनी अनन्तशक्ति के प्रभाव से भूमि का भार हल्का नहीं कर सकता है ? जब पापियो का ही गला घोटना है, तो यह काम वह वही बैठा, बैठा भी कर सकता है । यदि वह वहां ऐसा नही कर सकता तो वह सर्वगक्तिसम्पन्न है, यह कैसे माना जा सकता है ? अवतारवाद मान लेने
। जैनदर्शन पापियो के विनाश को अच्छा नहीं समझता है । जैन दर्शन कहता है कि पापी बुरा नहीं होता, बुरा पाप होता है । पापी का गला घोटने से पाप नही मर सकता । क्योकि अगले जीवन में भी पापी के पापमय सस्कार साथ जाते है । अत यदि पापी का सुधार करना है तो पाप का गला घोटने की आवश्यकता है । पाप की मृत्यु हो जाने से पापी, पापी नहीं रहेगा। वह वाल्मीकि की तरह मसार को एक ऋषि के रूप में दर्शन देगा । अत. पाप के विनाश के लिए पापी का नाश करना जैन दर्शन को इप्ट नही है । इगलिश में भी कहा है-'Hate the sin,not the sinner'अर्थात् पाप मे नफरत करो, पापी मे नही । दूसरी वात, पापियो का नाश करने में भगवान की क्या विशेषता है ? उसकी विशेषता तो उनका स धार करने में है।