________________
~
~
~
~
२९५
षष्ठम अध्याय मनुप्य ही नही, समस्त प्राणियो को समान अधिकार प्राप्त हैं। इस के यहा जन्म से न कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र है । जिसके जैसे कर्म होते है, उस को उसी नाम से पुकारा जा सकता है और प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति यथेच्छ धर्मशास्त्र पढ सकता है, धर्माराधन कर सकता है। हरिकेशी मुनि जन्म मे चाण्डाल कुल मे उत्पन्न होने पर भी साधु धर्म की परिपालना से सभी के पूज्य.बन गए। यहा तक, कि देवता भी. उनके सेवक बन गए थे। ब्राह्मणत्व को भी उनके चरणो मे नतमस्तक होना पड़ा था। ' । सक्ख खु दीसइ तवोविसेसो, न दीसइ जाइविसेस कोई" इस स्वर ने आकाश को गुंजा दिया था।
जैनधर्म का कहना है कि विश्व के जितने भी मनुष्य है, वे सव मूलत एक हैं। कोई भी जाति, कोई भी वर्ण मनुष्य जाति की मौलिक एकता को भग नही कर सकता । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन वर्णो की रचना तो समाज की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए की गई थी । एक वर्ग का काम था, कि वह अध्यापन का काम करे, जनता को रास्ता दिखलाने का प्रयत्न करे, और जबजब समाज मे गल्लिया होवे तो उन्हे ठीक ढग से दुरुस्त करे । ऐसा वर्ग ब्राह्मण वर्ण के नाम से समाज के सामने आया। सबलो द्वारा निर्बल पीडित न किए जाए, दुर्वलो को रहने का उतना ही अधिकार है, जितना कि बलवानो को। अत उनकी समुचित रक्षा की जाए, इस प्रयोजन से क्षत्रिय वर्ण को स्थापना हुई। कोई वस्तु कही बहुतायत से पैदा होती है और कही कम होती है, या होती ही नहीं है। जहा बहुतायत से होती है, वहा वह उपयोग करने के बाद भी पडी सडती है, और जहा नही होती वहा के लोग उसके विना असुविधा अनुभव करते हैं, और कष्ट भोगते है, इस परिस्थिति को बदलना
। साक्षात् खनु दृश्यते तपोविशेष.,न दृश्यते जातिविशेष कोऽपि । १२/३७