Book Title: Prashno Ke Uttar Part 1
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 329
________________ प्रश्नो के उत्तर VN के मुखो मे परिपूर्ण होता है। दूसरे बारे मे सुखोत्पादक सामग्री मे कुछ हीनता या जाती है। तीसरे बारे मे सुख के साथ दुःख भी होता है। चौथे मे दुख विशेप और सुव कम होता है। पांचवा पारा दुखप्रधान है, तथा छठा सर्वथा दु खो से परिपूर्ण होता है। इसी भाति उत्सपिणी काल के भी छ पारे होते है- १-दुपमदुपमा, २-दुपमा, ३-दुषमसुषमा, ४-सुपमदुपमा, ५- सुषमा, और ६- सुषमसुषमा । अवसर्पिणी काल के जो छ पारे हैं वे ही पारे इस काल मे उलटे रूप से होते है। इनका स्वरूप भो ठीक वसा ही है, किन्तु विपरीत क्रम मे। जैसे अवसपिणी काल का छठा पारा दुपमदुपमा है, किन्तु उत्सपिण काल का यह पहला पारा होगा । इसी भाति अगले पारो के सवध मे भी जान लेना चाहिए । अन्तर केवल इतना है कि अवपिणी काल मे वर्ण, रस, गन्ध आदि को पर्यायो मे तथा मनुष्य प्रादि की अवगाहना, स्थिति, सहनन और सस्थान आदि में उत्तरोत्तर हीनता होती चली जाती है, जवकि उत्सर्पिणो मे क्रमश वृद्धि। . . अवसर्पिणीकाल का जव छठा पारा प्रारम्भ होता है, तब जीवो के पापाविश्य से शरीरो मे भयकर व्याधिया पैदा हो जाती हैं, मेघ, आग और विप आदि की वाए करते हैं. सूर्य अधिक तपता है, चन्द्र अति गीत बन जाता है । परिणामस्वरूप वनस्पतियां और त्रस प्राणी नष्ट होने आरम्भ हा जाते हैं, पहाड और नगर पृथ्वी से मिल जाते हैं, केवल एक वैताठ्यपर्वत स्थिर रहता है, गगा और सिन्धु ये दो नदिया कायम रहती हैं, इनमे मच्छ, कच्छप आदि जीव रहते हैं। इस बारे के मनुष्य अधिक से अधिक एक हाथ के होते है और इनकी उत्कृष्ट प्रायु बीम वर्ष की होता है । ये वताढय पर्वत की ७२ विलो मे रहते हैं । ये मासाहार होते है । वर्म कर्म का इन को कोई बोध नहीं होता। इसी.

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