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सप्तम अध्याय
लिए ये प्रागः नरक और तिर्यच गति के गामी जीव होते हैं। उत्सर्पिणी काल के प्रारम्भ होने पर इनके विकास का उदय होता है। उससे पहले तो ये बहुत बुरी अवस्था मे रहते हैं।
जैन धर्म छठे चारे की इस दशा को ही खण्ड- प्रलय के नाम से पुकारता है । इसमें मनुष्य, पशु श्रादि प्राणियो का बीजनाश स्वीकार नही करता जब कि वैदिक धर्म के महाप्रलय मे सर्वनाश का ही रूपातर है । यही इन दोनो मे पारस्परिक अन्तर है ।
श्राद्ध की
यथार्थता
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श्राद्ध वैदिक धर्म का अपना पारिभाषिक शब्द है । इसका अर्थ है - वर्ष के अनन्तर पितरो को प्रन्न करने के लिए उनकी मरणतिथि के दिन श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणो का अन्न, वस्त्र आदि का दान करना, ब्राह्मणी को खोर आदि पदार्थों का भोजन खिलाना, इस विचार से खिलाना कि इनके द्वारा यह भोजन हमारे पितरो के पास पहुच जायगा । इससे उनकी तृप्ति तथा प्रसन्नता होगी । वदिक धर्म का विश्वास है कि पितरों की मरणतिथि को श्राद्ध करने से, ब्राह्मणो को भोजन खिलाने से पितर (स्वर्गीय आत्माए) प्रसन्न होती है. तृप्त हो जाती हैं । किन्तु जैनधर्म का ऐसा विश्वास नही है । यह कहता है कि जो पितर (मृत पूर्वज) लोकान्तर को प्राप्त हो चुके हैं, वे अपने शुभाशुभ कर्मो के अनुसार देव, नरक आदि गतियो मे उत्पन्न हो चुके हैं, वहा के सुख-दु ख भोग रहे हैं, उन्हें फिर पूर्व जन्म के पुत्रादि द्वारा दिए पिण्डो की इच्छा कैसे उत्पन्न हो सकती है ? हम सवस्वय भी, तो कही न कही से आए है, हमारे भी पुत्र आदि होगे ही, हम भी तो किन्ही के पितर है ही, जब हम कभी उनसे अन्नादि को इच्छा नही करने हैं, तो हमारे पितर हम से अन्नादि की इच्छा क्योकर कर सकते है ? यदि
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