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सप्तम अध्याय
प्रलय होना,यद्यपि जैनधर्म मे भी माना गया है किन्तु यहा सकारण और खण्डरूप प्रलय को स्वीकार किया गया है। जैनधर्म ने प्रलय करने का दोष ईश्वर को नहीं सौंपा है, किन्तु वह कालस्वभाव से इस की सत्ता को मानता है। जैनधर्म खण्डप्रलय के कारण अतिशय भयकर महातूंफान (आधी) अतिजलवृष्टि और अग्निवृष्टि आदि बतलाता है । तथा इन कारणो से भी आकाश, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र आदि का प्रलय नही मानता है। इस प्रलय मे मकान, वृक्ष, तथा बहुत से जोवो के गरीर को नाश होता है, किन्तु गर्भज, अण्डज आदि प्राणियो के युगल (दम्पती) अवश्य जीवित रहते है। यह प्रलय भी सर्वत्र नहीं होती किन्तु कुछ एक 'क्षेत्रो मे । जैसे गतवर्षों मे भूकम्प, जलवृष्टि, अग्निकाड और तूफान आदि से जापान मे और ईस्वी सन् १९४७ मे भारतवर्ष के कई स्थानो की प्रलय हुई है । ऐसे ही यह प्रलय होती है। अन्तर केवल इतना है कि यह प्रलय बहुत छोटी और वह बहुत बड़ी होती है । भाव यह है कि वैदिक धर्म महाप्रलय या सर्वप्रलय मानता है, और जैनधर्म खण्डप्रलय । सर्वप्रलय मे आकाश को छोड कर सब पदा. र्थो की प्रलय हो जाती है, जबकि खण्डप्रलय मे पदार्थों का नाश तो होता है किन्तु सर्वनाग या बीजनाश नही होने पाता है। इसमे गर्भज और अण्डज जीवो के स्त्री पुरुष जीवित रहते है।
जनदर्शन ने काल के अवसर्पिणी और उत्सपिणी ये दो विभाग किए हैं। अवसर्पिणो काल मे पुद्गलो के वर्ण, गन्ध, रस और स्पगं हीन होते चले जाते हैं। शुभ भाव घटते हैं और अशुभ भाव बढते हैं। इसके छ विभाग हैं- १-मुषमंसुषमा, २-सुषमा, ३-सुषमदुषमा, ४-दुषम-सुषमा, ५-दुषमा, ६-दुषमदुषमा । प्रत्येक विभागो को जनदर्शन में 'पारा' शब्द से व्यक्त किया गया है। पहला पारा सव प्रकार