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सप्तम अध्याय तीसरे प्रकार की बात, उसकी भी परीक्षा कर लीजिए. । प्रथम तो जब ईश्वर निराकार है, तब मुखादि के अभाव मे उस मे उपदेश देने की क्रिया का होना असंभव है, दूसरे यदि कुछ देर के लिए ऐसी क्रिया - मान भी ली जाए तो वह क्रिया भी सर्वव्यापक ईश्वर मे सर्वव्यापिनी ही होगी। फिर ऐसी अवस्था मे ईश्वर का उपदेश सब जीवो के हृदयो मे जाना चाहिए। जिससे सभी जीव वेदो की रचना कर सके। ऐसा न होकर केवल अग्नि, वायु, आदित्य और अगिरा इन चार ऋषियो के हृदयों मे ही और वह भी केवल क्रमश चारो मे ही एक-एक वेद का प्रकाश क्योकर हुआ? क्योकि सर्वव्यापक ईश्वर की क्रिया सर्वव्यापिनी होती है, वह एक-देशीय नहीं हुआ करती।
. वैदिक धर्म की मान्यता के अनुसार ईश्वर ने वेदो का ज्ञान चार ऋषियो को दिया, फिर उन ऋषियो ने वैसा उपदेश अन्य को दिया। उसने फिर वैसे उपदेश से दूसरो को पढाया,इस प्रकार परम्परा चलतेचलते जब स्मरण-शक्ति क्षीण होने लगी, तो उन्होने उन उपदेशो को अक्षर रूप मे लिख डाला, जो कि आज चारो वेदो के रूप मे हमारे सामने अवस्थित है। यहा एक प्रश्न होता है कि उन ऋषियो ने ईश्वर के उपदेशानुसार ही ठीक ज्यो के त्यो वेद अक्षर-रूप मे लिख डाले थे, इसमे क्या प्रमाण है ? वे ऋषि भी तो आखिर असर्वज्ञ और ससारी मनुष्य ही थे । ईश्वर की अपेक्षा अल्पज्ञानी थे। उन की प्रात्मा मे राग-द्वेष भी निवास करता था, वे वीतराग नही थे। फिर उन्होने अपने ज्ञान की कमी से या कदाचित् वुद्धिप्रखरता से या राग और द्वेष के कारण उस ईश्वर के उपदेश को अक्षर रूप मे कम,अधिक या कुछ का कुछ लिख डाला हो, यह सब सभव है। ऐसी दशा मे वेदो की प्रामाणिकता और अपौरुषेयता कैसे सुरक्षित रह सकती है ?