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सप्तम अध्याय
अश्लील कथनो से भरे पड़े है जैन धर्म ननको प्रामाणिक कसे मान सकता है। - ___ वैसे जैनो को वेदो से कोई शत्रुता नही है । जैनो को तो, वेदो मे यज्ञ के नाम पर जो पशुहिंसा का विधान किया गया है, वीतराग ईश्वर मे जो जगतकर्तृत्व आदि का असगत विश्वास है, तथा अश्लील कथन हैं, उनका विरोध है । और यह विरोध किसी द्वेष को लेकर नही है, किन्तु वस्तुस्थिति के आधार पर है। वेदो को अपौरुषेय मानना, हिंसा को धर्म कहना, जड को भगवान समझना अर्थात् मूर्तिपूजा करना, ईश्वर को जगत का निर्माता, भाग्य का विधाता, कर्मफल प्रदाता, अवतार लेकर आता, इस प्रकार स्वीकार करना आदि बाते किसी भी तरह युक्तियुक्त प्रमाणित नही होती हैं। इसीलिए जनधर्म वंदो को अपना धर्म-ग्रन्थ मानने से इन्कार करता है। . . .
ईश्वर का कर्तत्व - वैदिकधर्म जगत का नियामक और रचयिता ईश्वर को मानता हैं । उसका विश्वास है कि ईश्वर ही ससार का सर्वेसर्वा है, उसक सकेत के बिना वृक्ष का पत्र भी कम्पित नहीं हो सकता । ससार मे जो कुछ भी होता है, मनुष्य, पशु, पक्षो आदि प्राणियो की जो भी चेष्टाए दृष्टिगोचर होती है, उन सब का मूल प्रेरक ईश्वर है । ईश्वर की इच्छा के विना कुछ भी नही हो सकता। किन्तु जैन धर्म का ऐसा
६ यदि कोई महानुभाव विशेष रूप से वेदगत उक्त अश्लील बातो को जानना चाहें उसे पण्डित श्री अजित कुमार जैन शास्त्री द्वारा लिखे "सत्यार्थ दर्पण' के "वदो को ईश्वरीय ग्रन्थ समझना भूल है " इस लेख को पढना चाहिए। इस पुस्तक की प्राप्ति- मत्री, साहित्य विभाग, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा से हो सकती है ।
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