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प्रश्नो के उत्तर
ऐसी अनेको युक्तिए और भी उपस्थित की जा सकती है, जिनसे वेदो की पोरुषयता किसी भी प्रकार प्रमाणित नही हो सकती, परन्तु विस्तारभय से यही इस विषय को समाप्त करते हुए अन्त मे इतना निवेदन करेंगे कि जैनधर्म केवल वेदो को हो नही, प्रत्युत प्रत्येक शास्त्र को पौरुषेय मानता है । उसका विश्वास है कि शास्त्रों का निर्माण मनुष्य करता है, भगवान या ईश्वर ने उसकी रचना नहीं की है । इसके अलावा, यह भी समझ लेना श्रावश्यक है कि जैनधर्म वेदो को जहा पुरुषकृत मानता है, वहां वह उसको सर्वेसर्वा प्रामाणिक भी स्वीकार नही करता। जैनधर्म उसी शास्त्र को प्रामाणिक और श्रध्यात्म शास्त्र स्वीकार करता है, जो ग्रहिंसा, सयम और तप का विवेचन " करता हो, और मानव जगत को इस त्रिवेणी 'मे गोते लगाने की प्रेरणा प्रदान करता हो । जिस शास्त्र मे ये वाते नही होतो, बल्कि जो शास्त्र हिंसा का विधान करता है, जैनधर्म उस शास्त्र को ग्रव्यात्म शास्त्र ही मानने को तैयार नही है । वेदो मे हिंसामय यज्ञों का विधान है, ऐस अनेको मन्त्र वेदो मे पाए जाते है जो स्पष्ट रूप से मासाहार तथा पशुबलि की प्रेरणा देते हैं । यजुर्वेद अध्याय १९, मन्त्र २०, तथा यजुर्वेद अध्याय १३, मन्त्र ९, आदि ऐसे अनेको स्थल हैं जो हिंसा का स्पष्टरूप से पोषण करते है । इसीलिए जैन धर्म वेदो पर विश्वास नही रखता, और उन्हे प्रामाणिक रूप से स्वीकार नही करता ।
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वेदो मे ऐसे-ऐसे ग्रश्लील मन्त्र भी आते हैं, जिन्हे मुन कर लज्जा आती है । उदाहरणार्थ-यजुर्वेद अध्याय ६, मन्त्र १४, तथा यजुर्वेद अध्याय २३ के १९ वे मन्त्र से ले कर ३१वे मन्त्र तक अश्लीलता का वर्णन देखा जा सकता है । जो वेद धर्म के नाम पर की जाती पशुहिंसा तथा ईश्वरकर्तृत्व आदि की असगत और तर्कविरुद्ध वातो, तथा
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