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प्रश्नों के उत्तर
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क्रोध से वह काप उठता है, और उन की कृपा होने पर वह हर्ष विभोर हो जाता है, किन्तु जैनधर्म का विश्वास है कि मनुष्य को यदि भय है तो अपने ही दुष्कर्मों से है । जीवन मे खेल रहे काम, क्रोध, मोह, लोभ यादि विकार ही मनुष्य को दुखी और पीडित करते हैं । यदि मनुष्य इन विकारो से पिंड छुड़ा लेता है, अपने को सर्वथा निर्विकार बना लेता है तो उसे ईश्वर या अन्य किसी देवी-देवता से भयभीत होने की कोई श्रावश्यकता नहीं है। जैन धर्म का विश्वास है कि आत्मा मे अनन्त दर्शन है, अनन्त ज्ञान है, अनन्त मुख है और अनन्त वल है । दुर्बलता की भावना को छोड़ कर यदि वह ग्रपनी शक्तियो को प्रकट करले, आत्म शक्तियो पर श्रा रहे कर्म रूपी बादलो को फाड डाले तो इस ग्रात्मा से बढकर कोई शक्तिशाली नही है । आत्मा ग्रनन्त शक्ति का पुज है, शक्तियो का स्रोत है । अपने वास्तविक स्वभाव मे लीन न होने के कारण तथा पापो मे ग्रासक्त रहने के कारण यह अपने आप को भूल चुका है । जिस दिन यह त्याग और तपस्या के द्वारा अपने को विशुद्ध और निर्विकार बना लेगा, उसी दिन अपने मे ही इसे ईश्वरत्व, परमात्मत्व के दर्शन हो जाएगे । यह आत्मा स्वयं परमात्मा बन
जायगा ।
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साम्यवाद
वैदिक धर्म जन्मकृत वैपम्य को लेकर चलता है, वह जन्म से ही मनुष्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का रूप देता है। उसने ब्राह्मण को सर्वोपरि स्थान दिया है, और शूद्र को सब से हीन माना है । इसके यहां शूद्र को आव्यात्मिक उत्कर्ष का कोई अधिकार नही है । शूद्र धर्म-स्थान मे नही जा सकता, उसे धर्म शास्त्र सुनने या पढने का कोई हक नही है । किन्तु जैन धर्म का ऐसा विश्वास नही है । यहा
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