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षष्ठम अध्याय पर ऐसी अनेको आपत्तियां उपस्थित हो जाती हैं,जिनका कोई सतोषजनक समाधान नहीं मिलता। इसीलिए जैन दर्शन ईश्वर के अवतारवाद मे कोई विश्वास नही रखता है ।
जैनदर्शन का आदर्श ईश्वर का अवतार नही है, जैन दर्शन मनुष्य के उत्तार की बात कहता है । यहा ईश्वर का मानव के रूप मे अवतरण (ऊपर से नीचे की ओर आना ) नहीं माना जाता, बल्कि मानव का ईश्वर के रूप मे उत्तरण (नीचे से ऊपर की ओर जाना ) माना जाता है । जैन सस्कृति मे मनुष्य से बढ कर और कोई प्राणी नही है । उसकी दृष्टि मे मनुष्य केवल हाड-मास का चलता-फिरता पिंजर नही है, प्रत्युत अनन्त शक्तियो का पुज है, देवताओ का भी देवता है, और अनन्त सूर्यो का भी सूर्य । मनुष्य मे वह शक्ति है जो मुक्ति के पट खोलती है,मगर आज वह मोह-माया के अधकार से आ. च्छादित हो रही है।सत्य-अहिंसा के दिव्यालोक मे जिसदिन यह मनुष्य अपने अज्ञानाधकार को नष्ट कर निजस्वरूप को पाएगा तो उस दिन वह अनन्तानन्त जगमगाती हुई आव्यात्मिक ज्योतियो का पुज बन कर शुद्ध, बुद्ध, परमात्मा बन जायगा। जैन सस्कृति मे मनुष्य की चरम शुद्ध दशा का नाम ही ईश्वर है । यही जैन सस्कृति का उत्तारवाद है । जो मानव को सत्य-अहिंसा की पवित्र साधना द्वारा सिद्धबुद्ध-परमात्मा बनने की आदर्श प्रेरणा प्रदान करता है । इस प्रकार जैन सस्कृति का उत्तारवाद मानव जाति को ऊपर उठना सिखाता है, वैदिक संस्कृति की तरह यह अवतारवाद के माध्यम से मनुष्य को ईश्वर के हाथ की कठपुतली नही बनाता। प्रश्न- ईश्वर एक है या अनेक ? उत्तर- जैन दर्शन इस का उत्तर स्याद्वाद की भाषा मे यदि दे तो कहना होगा- ईश्वर एक भी है और अनेक भी । गुणों की दृष्टि