________________
२८१
षष्ठम अध्याय खा है, जो कभी तो हाथी की थोडी सी चिंघाड़ मात्र से भर जाता है और कभी भूमण्डल के सभी प्राणियों की करुण पुकार से भी नही भरने पाता। कभी तो नाई के वदले राजा के पैर दबाने के लिए भगवान भाग उठते हैं और अब दुखो के मारे जन-गण कराह रहे है, अन्नाभाव और अर्थाभाव के कारण ऐडिया रगड़-रगड़ कर लोग दम तोड रहे हैं तथापि दीन-दयालु करुणा के सागर सानन्द वैकुण्ठधाम मे वैठे आराम की बन्सरी वजा रहे हैं, पता नही, उनके कानो पर जूं तक क्यो नही रेगती? तथा कभी तो द्रौपदी के अग को ढकने के लिए भगवान साड़ियो की वर्षा कर देते हैं, और अब जब कि हज़ारों नही लाखो द्रौपदियो को नग्न किया गया, और वडी निर्दयता के साथ उन का शील भग किया और कराया गया तथापि भगवान को दया नही आई।
वास्तव में देखा जाए तो अवतारवाद का सिद्धात सर्वथा थोथा और खोखला सिद्धात है, इसके पीछे कोई दार्शनिक बल नहीं है । सच तो यह है कि ईश्वर को अवतारवाद के साथ जोड़ कर ईश्वरके ईश्वरत्व को अपमानित किया गया है।
आध्यात्मिक जगत मे ईश्वर का सर्वोपरि स्थान है। यह स्थान कर्मों को क्षय करने के अनन्तर उपलब्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र के दशम अध्याय मे प्राचार्य उमास्वाति कहते है कि "कृत्स्न कर्मक्षयो मोक्ष" । अर्थात् सम्पूर्ण कर्मो के क्षय कर देने का नाम मोक्ष है। मोक्ष मे जाने वाला प्रात्मा कर्मों से सर्वथा और सर्वदा मुक्त रहता है । मुक्त अवस्था की प्राप्ति हो तभी होती है जब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय कर दिया जाए । जो आत्मा कर्मो का सर्वथा नाश करके उनसे नितान्त छुटकारा प्राप्त कर लेता है, वह पुन कर्मों के बन्धन में कैसे पा सकता है? कर्म बन्धन क्रोध, मोन, माया आदि