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षष्ठम अध्याय
सांस सफल सो ही जानिए, जो प्रभु-सिमरण में जाय ।
और सांस यूही गए, कर - कर बहुत उपाय ॥ प्रभु-स्मरण करते समय एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रभु-स्मरण आत्मशुद्धि या आत्मकल्याण के लिए ही करना चाहिए। उसके पीछे पुत्र, कलत्र या अन्य सासारिक पदार्थो की कामना नही रहनी चाहिए। परमात्मा वीतराग है, वहां राग और द्वेष का सर्वथा अभाव है, अत. नाम लेने से वह प्रसन्न होगा, प्रसन्न हो कर हमारी कामना पूर्ण करेगा, ऐसी आशा नही रखनी चाहिए। जैनदर्शन किसी आध्यात्मिक अनुष्ठान को ऐहिक स्वार्थ के लिए, करने का निषेध करता है। दशवकालिक सूत्र के नवम अध्ययन मे लिखा है-कि तपस्वी साधु-ऐहलौकिक सुखो के लिए तप न करे, पारलौकिक स्वर्गादि सुखो के लिए तप न करे, प्रात्म प्रशसा के लिए तप न करे । किन्तु केवल आत्मशुद्धि तथा कर्मो की निर्जरा के लिए ही तप का अनुष्ठान करे। प्रभु का स्मरण करना भी एक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। अत. इस अनुष्ठान को भी स्वच्छ और परमार्थ भावना से करना चाहिए। इसके पीछे कोई स्वार्थ या ऐहिक महत्त्वाकाक्षा आदि दुर्भाव नही रखना चाहिए। प्रश्न- क्या ईश्वर अवतार धारण करता है ? । उत्तर- नहीं करता, क्योकि अवतार [जन्म] उन्ही जीवो का होता है, जो कर्म, इच्छा, मोह, माया, अविद्या से युक्त हो। ईश्वर मे ये सब __ चीजें नहीं है, फिर वह अवतार कैसे ले सकता है ?
वैदिक परम्परा मे विश्वास पाया जाता है कि जव-जव धर्म S यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत !
परित्राणाय साधूना,विनाशाय च दुष्कृताम् ।।