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षष्ठम अध्याय
उसे गन्तव्य पथ को जानने तथा समझने की आवश्यकता होती है, मार्ग को जाने बिना उसका उस पर चलना असंभव है । मार्ग पर चलने से पूर्व मार्ग की जानकारी प्राप्त करनी ही पडती है, तभी यात्री अपने गन्तव्य पथ पर चल कर अपने लक्ष्य तक पहुच सकता है । ऐसे ही परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त करने के लिए, उसके स्वरूप को समझना होगा और समझने के अनन्तर उसे अपनाना होगा। जब तक परमात्मा के स्वरूप को अवगत नही किया जायगा, तब तक उसे प्राप्त करने का प्रश्न ही उपस्थित नही होता । परमात्मा का स्मरण और उसका चिन्तन उसके स्वरूप को अवगत और परम्परा से उसे प्राप्त करने का साधन है । इसीलिए परमात्मा का स्मरण किया जाता है । और यथाशक्ति करना भी चाहिए ।
दुखो के उत्पादक राग और द्वेष ये दो जीवन-विकार है । इन दोनो को दूर करने के लिए राग-द्वेष रहित परमात्मा का अवलम्बन लेना नितान्त आवश्यक है । स्फटिक के पास जिस रंग का फूल रखा जायगा तो वैसा रंग स्फटिक अपने मे ले आता है । ठीक इसी प्रकार राग-द्वेष के वातावरण मे बैठ कर जीव को राग-द्वेप के सस्कार मिलते हैं । इन सरकारों से बचने के लिए सुन्दर, पवित्र और सात्त्विक ससग प्राप्त करने की विशेष आवश्यकता रहती है । ईश्वर का स्वरूप परम निर्मल और शान्तिमय है । राग-द्वेष का रंग या उसका तनिक सा भी प्रभाव उसके स्वरूप मे नही है, अत उसका अवलम्बन लेने से, उसका ध्यान व चिन्तन करने से आत्मा मे वीतराग भाव का सचार होता है, ग्रात्मा मे ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है कि राग द्वेष की प्रवृत्तिया धीरेधीरे शान्त होने लगती हैं। और जीव स्वय वीतराग बन जाता है । आग का सान्निध्य पाकर मनुष्य का जैसे शैत्य दूर हो जाता है, ठीक
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