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षष्ठम अध्याय रही कर्मो के फल देने की बात, उसके सबंध, मे जैन दर्शन का कहना है कि कर्म परमाणु अपना फल स्वय देते हैं, उस के लिए किसी न्यायाधीश को आवश्यकता नही है । जैसे शराब पीने पर व्यक्ति को नशा हो जाता है और दूध पीने पर व्यक्ति का मस्तिष्क पुष्ट होता है। शराब या दूध पीने के अनन्तर उनका फल देने के लिए किसी दूसरे शक्तिमान नियामक की जैसे आवश्यकता नही होती, वैसे ही जीव की प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति के साथ जो कर्माणु जीवात्मा की ओर आकृष्ट होते हैं, और राग-द्वेष का निमित्त पाकर उस जीव से $ क्षीर-नीर या लोह-अग्नि की भाति मिल जाते है,
आत्मप्रदेशो का कर्म-परमाणुओ के साथ जो क्षीर नीर जैसा सबंध बतलाया गया है, वह केवल कर्माणुओ का प्रात्मप्रदेशो के साथ अत्यधिक निकट का सवध प्रकट करने के लिए ही बताया गया है । वस्तुत. आत्मप्रदेश दूध के परमाणुयो की भाति व्यववान वाले नहीं हैं।जैन दर्शन का विश्वास है कि प्रात्मा के असंख्य प्रदेश होते है, और उनका कभी पारस्परिक वियोग नहीं होता है । वे सदा एक दूसरे से सम्बद्ध रहते है।अतः उनमे कर्माणु क्षीर नीर या लोह-अग्नि की भाति नही मिल सकते । क्योकि दूध के अणुओ में सयोग-वियोग होता रहता है. और इनमें जो जल-कण मिलते है, वे जैसे वस्त्र के तन्तुओ पर मल की तहें बैठ जाती है, ऐसे नही मिलते, बल्कि दुग्धपरमाणु और जलपरमाणु दोनो समकक्ष या समश्रेणिस्थ होकर मिलते है । आत्मप्रदेश खण्डित न होने के कारण कर्माण उन के साथ समकक्ष हो कर नही मिल सकते । तथापि आत्म. प्रदेशों का कर्माणु यो के साथ जोक्षीर-नीर का सम्बन्ध कहा जाता है,यह केवल स्थूल उदाहरण द्वारा उनका अत्यधिक निकट का सम्बन्ध व्यक्त करने के लिए ही कहा जाता है । वस्तुतः कर्माणु ओ का और प्रात्मप्रदेशो का सम्बन्ध केत द्वारा ग्रसित सर्य, या राहु द्वारा आच्छादित चन्द्र के समान समझना चाहिए।