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प्रश्नो के उत्तर
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उन कर्माणुनो मे भी शराब और दूध की तरह अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति निवास करती है,जो चैतन्य के सवध से व्यक्त होकर जीव पर अपना प्रभाव डालती रहती है और उसके प्रभाव में मुग्ध हुना जीव ऐसे-ऐसे काम करता है जो सुखदायक तथा दुखदायक होते हैं। कर्म करते समय यदि जीव के भाव अच्छे हैं तो वन्धने वाले कर्मपरमाणु अच्छे होते हैं और बाद मे उस का फल भी अच्छा ही होता है । तथा यदि जीव के भाव बुरे होते है तो उस समय बुरे परमाणुप्रो का बघ पडता है और कालान्तर मे उसका फल भी बुरा ही होता है। अतः जन दर्शन कहता है कि कर्मफल की प्राप्ति मे कर्म परमाणु ही सर्वेसर्वा कारण है, ईश्वर का उसके साथ कोई मवघ नही है। प्रश्न- ईश्वर जगत का निर्माता नहीं है, भाग्य का विधाता नहीं है, और वह कर्मफलप्रदाता भी नहीं है,फिर उसका स्मरण करने की क्या आवश्यकता है ? ईश्वर जब वीतराग है, वह न प्रसन्न होता है और नॉहीं रुष्ट होता है, फिर उसके गुण गाने का क्या प्रयोजन ? यदि ईश्वर हमारा कुछ नफा-नुकसान नहीं करता तो उसके भजन से क्या लाम ? उत्तर- जैसे दर्पण को देख कर मनुष्य अपने मुंह पर लगे हुए दाग को साफ कर लेता है। वैसे ही परमात्मा को आदर्श मान कर हम अपनी आत्मा को धो सकते हैं। इसीलिए परमात्मा का भजन व चिन्तन हमारे लिए नितान्त आवश्यक है । परमात्मा के भजन का केवल इतना ही उद्देश्य होता है कि उस का चिन्तन करके हम उस के स्वरूप को अवगत कर सके, और उसके विशुद्ध गुणो को अपने अन्दर प्रकट कर सकें। पथिक को जिस पथ पर चलना होता है, सर्वप्रथम