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प्रश्नों के उत्तर .............. माता गान्धारी से अपना और अपने यदुवंग के नाम का शाप सहन करते है । ऐसे अनेको उदाहरण हैं जो भगवल्लीला के परिचायक हैं। किन्तु इन पर ननु-नच करने का- ऐसा क्यो हुआ ? यह कहने का, किसी को कोई अधिकार नहीं है । क्योकि व्यक्तिवाद मे तर्क या पागका को कोई स्थान नहीं होता।
इसके विपरीत श्रमण सस्कृति का प्राण जैनधर्म गुणो को महत्त्व देता है, व्यक्ति को नही। जैन परम्परा मे पच परमेष्ठी को नमस्कार किया जाता है। किन्तु उनमे किसो व्यक्ति-विशेष का नाम नहीं है। उन सभी महापुरुषो को नमस्कार किया गया है, जिन्होने अपना सारा जीवन स्व-पर-कल्याण के लिए लगा दिया है । अध्यात्म-धन का जो धनी है, तथा जिसने राग-द्वेष को सदा के लिए जीवन से निकाल दिया है, वह कोई भी क्यो न हो, जैन धर्म उसके चरणो मे नत हो जाता है, उसे भगवान मान कर उसकी आराधना तथा उपासना करता है। व्यक्तिवाद का जैनधर्म मे कोई स्थान नही।
जैनधर्म मे व्यक्तिपूजा को कितना हेय और त्याज्य समझा गया है? यह एक उदाहरण से समझ लीजिए। इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के प्रधान शिष्य थे । ये १४ हजार साधुप्रो मे मुख्य थे, इनके अनेक शिष्य-प्रशिष्य केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्त होगए किन्तु इन्हे केवलज्ञान नही प्राप्त हुआ । एक दिन इन्होने भगवान महावीर से इसका कारण पूछा । भगवान ने कहा- गौतम | तुझे मुझ से मोह होगया है। वीतराग के पास रह कर तू अभी तक वोतरागता प्राप्त नही कर सा है । मोह से ग्रस्त हो रहा है। इसीलिए तू आज तक केवलज्ञान से वञ्चित रह रहा है । पर निराग होने वाली कोई बात नही है। मेरे निर्वाण के बाद तुम्हारा मोह-बधन टूट जायगा और उसके