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सप्तम अध्याय
पश्चात् तु केवलज्ञान की प्राप्ति हो जायगी। परिणाम स्वरूप भगवान महावीर का निर्वाण हो जाने के अनन्तर ही श्री गोतम जी महाराज का मोह दूर हुआ प्रीर तभी उन्हे केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इस घटना से यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि जैनधर्म मे व्यक्तिपूजा को कोई स्थान नही है । यदि जैनधर्म व्यक्तिपूजा मे विश्वास रखता तो भगवान महावीर के व्यक्तित्व से मोहित श्री गोतम को अवश्य केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती । पर ऐसा हुआ नही है । प्रत वैदिक धर्म की भाति जैनधर्म व्यक्तिपूजा मे कोई विश्वास नही रखता । वह तो ससार को गुणपूजा का ही सन्देश देता है ।
व्यक्तिपूजा र गुणपूजा दोनो मे महान अन्तर है । व्यक्तिपूजा मे मनुष्य श्राराध्य ग्रादमो को खुश करके उसकी कृपा द्वारा सुख-सावन प्राप्त करना चाहता है। इसके विपरीत, गुणपूजा द्वारा व्यक्ति प्राराध्य को अपने हृदय में उतार कर उसके गुणो को उपलब्ध कर स्वयं तद्रूप वन जाना चाहता है । पहली परम्परा सामन्त शाही को जन्म देती है, जब कि दूसरी परमात्मस्वरूप के उत्थान को ।
हिंसा
वैदिक धर्म का विश्वास है कि " वैदिकी हिंसा हिमा न भवति अर्थात् वेदों के नाम पर, वेदो के नेतृत्व मे किए जाने वाले यज्ञ मे जो हिंसा होती है, मनुष्य, पशु श्रादि की जो बलि दी जाती है, वह हिंसा नही है, अहिंसा है । भाव यह है कि वेद को माध्यम बना कर जो हिंसा की जाती है वह हिंसा की कोटि मे हो समाविष्ट हो जाती है । राजा हरिश्चन्द्र को इस शर्त पर पुत्र की प्राप्ति होती है कि वह उसो पुत्र के द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान करे, किन्तु पुत्र मोह के कारण हिचक जाता है, उसे कुछ रोग हो जाता है । अन्त मे बलि देने के लिए एक भूखे ब्राह्मण-पुत्र को खरीद लिया जाता है और उसकी बलि द्वारा
राजा
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