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प्रश्नो के उत्तर
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अनन्त प्रदेशी न माना जाए तो पजाव और वगाल के आकाश मे कोई अन्तर नहीं रह जायगा । दोनो प्रदेश एक ही क्षेत्र में आ जाएंगे। परन्तु ऐसा नही होता है, क्योकि पजाव के आकाग प्रदेश और वगाल के आकाश प्रदेश अलग-अलग हैं। इसी कारण उसे अनन्त प्रदेश वाला माना है । आकाश एक होने पर भी दोनो प्रान्तो के आकाश प्रदेश भिन्न-भिन्न है। इससे क्षेत्र व्यवस्था ठीक ढग से घटित हो जाती है।
वौद्ध दर्शन में आकाश को असस्कृत माना है और उसका विवेचन अनावृत्ति ( आवरण रहित ) रूप से किया है। यह न किसी पदार्थ को श्रावृत्त करता है और न किसी पदार्थ से प्रच्छन्न होता है। असस्कृत का मतलव होता है- उत्पादादि धर्मो से रहित । एकान्त - क्षणिकवादी वौद्ध दर्शन के द्वारा आकाश को संस्कृत मानना कुछ समझ मे नही आता है। भले ही इसे अनावृत्त माना जाए फिर भी वह भावात्मक पदार्थ है, इसे स्वयं वौद्धों ने माना है। और बौद्धो के मत मे भावात्मक पदार्थ उत्पादादि धर्मो से रहित नही होता। यह वात अलग है कि हम उसमे होने वाले उत्पादादि धर्मों का विवेचन न कर सके । किन्तु उनके स्वरूप से इन्कार नही किया जा ' सकता और न उसे मात्र आवरणाभाव ही माना जा सकता है । क्योकि
समस्त जीव-अजीव आदि द्रव्य आकाग से वेष्टित हैं और उसकी पर्यायो मे भी प्रति समय परिवर्तन होता रहता है । अत. आकाश न तो अनावृत्त ही है और न उत्पादादि वर्मो से रहित ही है। वह उत्पाद, तित्राकाशमनावृत्तिः।
-अभिवर्म कोश, १, ५. + अभिधर्म कोग, १, २८॥
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