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प्रश्नो के उत्तर
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एव घृणा का पात्र बना था । यत्र-तत्र सर्वत्र उसे घृणा - तिरस्कार एव अनमान सहना पडता था । कोई व्यक्ति उसकी गक्ल-सूरत देखना नहीं चाहता था । कोई भी उसके शब्द सुनना पसन्द नहीं करता था । वह बेचारा जीवन से ऊब कर मरने को चल पड़ा और वहां महात्मा का योग पाकर स्वयं महात्मा-तपस्वी वन गया । वह गरोर, वह वाणी, जो कर्म वध का कारण बन रही थी, जीवन एव भावना के बदलते ही वह निर्जरा एवं सवर का कारण बन गई। एक दिन जिसे कोई अपने पास खड़ा नही रहने देना चाहता था, उसी की सेवा में देव रहने लगा । इससे स्पष्ट हो जाता है कि शुभ या अशुभ कर्म के उदय से उपलब्ध शुभाशुभ साधनो को मनुष्य वदल भी सकता है । अशुभ साधनों को शुभ एव शुभ को अशुभ बनाने की शक्ति मनुष्य के हाथ मे है | कर्मचाहे शुभ हो या अशुभ जड़ है और ग्रात्मा चेतन है । वह अनन्त शक्ति युक्त है, अपनी ताकत से सारे कर्मों को तोड़ने में समर्थ हैं । आवश्यकता इस वात की है कि वह अपनी ताकत को समझ कर उसका ठीक तरह से उपयोग करे
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पुण्य का फल शुभ होता है । वह अनेक तरह के शुभ भावो एव कार्यो से ववता है । फिर भी शास्त्रकारो ने उसे नव प्रकार का बताया है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति सरलता से समझ सके । वह वर्गीकरण इस प्रकार है- १ अन्न-पुण्य, २ पान-पुण्य, ३ लयन-पुण्य, ४ शयन-पुण्य, ५ वस्त्र- पुण्य, ६ मन-पुण्य, ७ वचन-पुण्य, ८ काय-पुण्य, ९ नमस्कारपुण्य | * सक्षेप में पुण्य वव के ये नव कारण है ।
१ अन्न-पुण्य - साधु को एव वुभुक्षित मनुष्य को शुद्ध हृदय एवं दया-अनुकम्पा युक्त निस्वार्थ भाव से यथा योग्य अन्न का दान देने से
* स्थानाग सूत्र, स्थान ९ ।