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तृतीय अध्याय
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और उसके साथ क्रमश: शुभ और अशुभ कर्मों का वन्व भी करती है।' ___यह हम पहले बता चुके है कि बचे हुए कर्म अपना अवाधाकाल पूरा होने पर उदय मे आते है और अपना फल देकर प्रात्म-प्रदेशो से अलग हो जाते है। जैसे फल पककर स्वत. ही वृक्ष से गिरकर अलग हो जाता है, उसी तरह पाबद्ध कर्म भी अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं। इससे कर्मों के आवागमन की जो परम्परा है, वह बनी रहती है। पुरातन कर्म आत्मा से अलग होते है और अभिनव कर्म आ चिपटते हैं । यदि फल भोग के समय राग-द्वेप या कषाय की तीव्रता हो तो नवीन कर्मों का प्रगाढ वध हो जाता है । इस तरह इस निर्जरा से संसार-परिभ्रमण की परम्परा समाप्त नही होती है। "
कों को आत्मा से अलग करने का तप भी एक साधन है। तपश्चर्या से बधे हुए कर्मों को समय से पूर्व भी निर्जरा की जा सकती है। इसके भी दो भेद माने गए हैं- १ अकाम और २ सकाम । जो तप किसी कामना-पाक्षिा से किया जाता है या विवेक एव ज्ञान से रहित किया जाता है, उससे भी अशुभ कर्मो की निर्जरा तो होती है, परन्तु उससे मुक्ति का मार्ग नहीं सेंधता है । निदान पूर्वक या अज्ञान से की जाने वाली तपश्चर्या भी ससार परिभ्रमण काही कारण है, इसलिए उसको अकाम निर्जरा कहा है । वौद्ध एव वैदिक ग्रन्थो मे भी अज्ञानपूर्वक की जाने वाली क्रियों से परंपद या निर्वाण प्राप्ति का निषेध किया गया है। गीता में भी निष्काम कर्म करने का आदेश दिया गया है। अस्तु, ज्ञान शून्यं एव कामना युक्त किया जाने वाला तप मुक्ति का साधन नही होने से अकाम निर्जरा की कोटि में गिना गया है। " । 'सम्यगं ज्ञान पूर्वक विना किसी तरह की चाह के किया जाने वाला तप मुक्ति का साधन है। इससे अशुभ कर्मो की निर्जरा होती