________________
षष्ठम अध्याय rrorrrrrrrrrrrrrre
• ४-ईश्वर जीवो के कृत कर्मों के अनुसार उनके शरीर आदि का निर्माण करता है । जीवो के कर्मों के अनुसार ही वह जीवो को फल प्रदान करता है। अपनी इच्छा के अनुसार वह कुछ नहीं कर सकता है। ऐसी दशा मे यह मानना पड़ेगा कि ईश्वर परतन्त्र है। परतन्त्रता की वेडियो मे जकड़ा व्यक्ति कभी ईश्वर कहा नहीं जा सकता। जो सर्वथा स्वतन्त्र है. समर्थ है, उसी व्यक्ति के लिए ईश्वर की सज्ञा दी जा सकती है । परतन्त्र जीवन को ईश्वर का पद प्राप्त नहीं हो सकता । जुलाहा यद्यपि कपड़े बनाता है, परन्तु वह परतन्त्र है, स्वार्थ परिवार, समाज आदि के बधनी मे वह वधा हुआ है. इसलिए उसे ईश्वर नहीं कहा जाता है। कर्म-अधीन होने से ईश्वर की भी यही स्थिति है । यदि ईश्वर अपनी इच्छा से कर्मफल मे हेराफेरी करने लग जाए तो उसकी प्रामाणिकता समाप्त हो जाती है,।
५-क्सिी प्रांत मे किसी सुयोग्य न्यायशील शासक का शासन हो तो उसके प्रभाव से चोरो, डाकुओ तथा आततायी लोगो का चोरी प्रादि दुष्कर्म करने मे साहस नही पडता । और वे उद्दण्डता को छोड कर प्राय सत्पथ अपना लेते है । जिससे प्रात मे शाति की स्थापना हो जाती है। और वहा के लोग निर्भयता के साथ सानन्द जीवन व्यतीत करते हैं परन्तु यह समझ मे नही आता कि जब ससार का शासक ईश्वर है, और वह ऐसा शासक है, जो सर्वथा दयालु है, गायशील है, सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, तथापि ससार मे बुराई कम नहीं हो पाती । मासाहारियो, व्यभिचारियो और चोरो आदि हिंसक लोगो का आधिक्य ही दृष्टिगोचर होता है । सर्वत्र छल, कपट और ईर्षा-द्वेष को आग जल रही है। ऐसी दशा मे कैसे कहा व माना जाए कि ईश्वर ससार का शासक है ? .
- ६-जब कोई मनुष्य चोरी करता है तो उस पर राज्य की ओर