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षष्ठम अध्याय
दिलवाना आवश्यक समझा जाए तो वह ईश्वर का अच्छा अन्धेर न्याय है कि एक ओर तो वह स्वयं धत्नी को दण्ड देने के लिए चोर को उसके घर भेजता है, और दूसरी ओर पुलिस द्वारा उस चोर को पकडवाता है । क्या यह "चोर से चोरी करने की बात कहे और शाह से जागने की " इस कहावत के अनुसार ईश्वर मे दोगलापन नही श्रा जायगा ?
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ईश्वर ने प्राणदण्ड देने के लिए ही कसाई, चण्डाल तथा सिंह आदि हिंसक जीव पैदा किए हैं, तदनुसार वे प्रतिदिन हजारो जीवो को मार कर उनके कर्मो का फल उन्हे देते हैं । ईश्वर को कर्मफलप्रदाता मानने पर ये सभी जीव निर्दोष समझने चाहिए । क्योकि वे भी तो ईश्वर की प्रेरणा के अनुसार ही कार्य कर रहे हैं । यदि ईश्वर इन जीवो को निर्दोष माने तब उसके अन्य सभी जीव जो कि दूसरो को किसी न किसी प्रकार की हानि पहुचाते है, निर्दोष हो समझने चाहिए। यदि उन्हे भी दोषी माना जायगा तो उनके साथ महान् अन्याय होगा | क्योकि राजा की आज्ञा के अनुसार अपराधियो को उन के अपराध का दण्ड देने वाले जेलर, फांसी लगाने वाले व्यक्ति आदि सभी जीव जब न्याय को दृष्टि मे निर्दोष माने जाते हैं तब उनके समान ईश्वर की प्रेरणानुसार अपराधियो को अपराध का दण्ड देने वाले प्राणी दोषी नही होने चाहिए ?
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२ - ईश्वर सर्वशक्तिसम्पन्न है, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, अतः उस के द्वारा दी हुई सजा अनिवार्य और अमिट होनी चाहिए। पर ऐसा होता नही है । ईश्वर ने किसी व्यक्ति को उसके अशुभ कर्म का फल देकर उसके नेत्रो की नजर कमजोर करदी, वह अब न तो कोई दूर की वस्तु साफ देख सकता है और न छोटे-छोटे अक्षरो वाली पुस्तक पढ सकता है । ईश्वर का दिया हुआ यह दण्ड श्रमिट होना चाहिए था । परन्तु
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