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षष्ठम अध्याय ..
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सब मनुष्य के दुष्ट कर्मों का परिणाम है, तो फिर हम कहते हैं कि ईश्वर ने उसका ऐसा भाग्य ही क्यो बनाया, जिससे वह दुष्ट कर्म करे ? ईश्वर को भाग्य का विधाता मान लेने पर उक्त प्रकार की नेकानेक आपत्तिया ईश्वर पर ग्राती हैं, जो उसके नही रहने देती । ग्रतः यही मानना उचित और भाग्य-विधाता नही है । भाग्य का निर्माण अच्छा भाग्य बनाए या बुरा, यह सव मनुष्य के हाथ की बात है । परमपिता परमात्मा उस मे कोई दखल नही देता । वस्तुस्थिति भी यही है । इसीलिए जैनदर्शन ईश्वर को भाग्य का विधाता नही
ईश्वरत्व को सुरक्षित तर्कसगत है कि ईश्वर मनुष्य करता है ।
स्वय
मानता ।
प्रश्न -- ईश्वर को कर्मफल का प्रदाता मानने में क्या आपत्ति Type
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उत्तर- "ईश्वर को कर्मफल का प्रदाता मान लेने पर ईश्वर पर एक नही, अनेको श्रापत्तियां आती है । श्रत. ईश्वर को कर्मफलदाता नही मानना चाहिए।
जैनदर्शन का विश्वास है कि मनुष्य जो कर्म करता है, उन
कर्मो का फल देने वाली तथा जीव को एक योनि से दूसरी योनि मे ले
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जाने वाली ईश्वर नाम की कोई शक्ति नही है । ससार के पदार्थों मे जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं, वे सब के सब प्राकृतिक नियमो के अनुसार स्वयं ही होते रहते हैं । उदाहरण के लिए जल को ले ली -
जिए धूप की उष्णता पाकर जल भाप बन कर श्राकाश में उड़ जाता है, प्राकारा के शीत भाग में पहुंच कर भाप छोटे-छोटे जलविदुद्मा के रूप मे परिवर्तित हो कर मेघ के रूप मे दिखलाई देती है । फिर मेघो के भारी हो जाने पर वर्षा का होना, विजली का चमकना गड़गड़ाहट