________________
rrrr
२७१
षष्ठम अध्याय यदि जीव दुष्कर्म करना छोड़ दे तो ईश्वर अपना मनोविनोद और शासन करने की महत्त्वाकाक्षा को पूर्ण कैसे करे लोगो के हित की चिन्ता न करने वाला, प्रत्युत अपने ही विनोद और शासन का ध्यान रखने वाला व्यक्ति क्या ईश्वर कहलाने योग्य है ? उत्तर स्पष्ट है, कभी नही।
८-ससार, मे अनन्त जीव हैं और प्रत्येक जीव मन, वचन और काया मे कुछ न कुछ करता ही रहता है। एक जीव की क्षण-क्षण की क्रियाओं का इतिहास लिखना और उन का जीव को फल देना, यदि असभव नही तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। जब एक जोव के क्षण-क्षण का ब्योरा रखना; एव उसका.फल देना इतना दुष्कर है तो ससार के अनन्त जीवो के क्षण-क्षण की क्रियाओ का ब्योरा रखना एव उन का फल देना ईश्वर के लिए कितना दुष्कर कार्य है। यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त, संसार के अनन्त जीवो के क्षण-क्षण मे किए गए कर्मो के फल देने में लगे रहने से वह ईश्वर केसे शान्त तथा अपने आनन्दस्वरूप मे कैसे मग्न रह सकता है ? तथा यह सब झझट ईश्वर करता किस लिए है ? ईश्वर को क्या आवश्यकता पड़ी है कि वह ससार के अनन्त जीवो के कर्मों का हिसाब रखे और फिर उन्हे दण्ड दे?
" ९-देखा जाता है कि किसी कर्म को फल, कर्ता को तुरन्त मिल जाता है और किसी का कुछ समय के बाद मिलता है, किसी का कुछ वर्षों के बाद और किसी कर्म का फल , जन्मान्तर मे मिलता है। इस का कारण क्या है ? कर्मफल के योग मे यह विषमता क्यो देखी जाती है ? क्या ईश्वर के यहा भी रिशवतें चलती है जो किसी को आगे और किसी को पीछे कर्मों का फल भुगताता है ? . . .।
ईश्वर को यदि कर्मफल का प्रदाता स्वीकार कर लिया जाए तो