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.... . प्रश्नों के उत्तर ... . ... .....२४८ लीला दिखा कर फिर से वैकुण्ठ धाम में जा विराजता है। वह सदा स्मरणीय है, नमस्करणीय है।
आजकल आर्य समाज के विचारक उक्त मान्यता मे पूर्णत. सहमत नहीं है। वे भी ईश्वर को एक, सच्चिदानद एव मृष्टि का कर्ता हर्ता तथा पुण्य-पाप का फल प्रदाता मानते है। परन्तु, वे अवतार वारण करने की बात को स्वीकार नहीं करते हैं। उन की मान्यता है कि किसी पापी या दुष्ट का विनाश करने हेतु ईश्वर ससार में नहीं पाता है । वह सदा स्मरणीय है।
जैनागमो में ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। उस मे परमात्मा, सिद्ध, बुद्ध प्रादि शब्दो का प्रयोग मिलता है और सिद्ध एकदो नही, दस-बीस नहीं, अनन्त हैं और अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति सम्पन्न हैं, सच्चिदानद हैं, कर्म फल मे सर्वथा अलिप्त हैं, राग-द्वेष से रहित हैं, किसी भी जीव के कार्य मे दखल नहीं देते । वे न सृष्टि के रचियता हैं और न विनाशक ही हैं, न किसी प्राणी को मुख देते हैं और न दुःख ही देते हैं । न किसी भक्त को स्वर्ग में भेजते हैं और न किसी को नरक मे। प्रत्येक जीव कर्म के करने एवं कृत कर्म के फल को भोगने में स्वतन्त्र है । स्वर्ग और नरक का निर्माण करने मे तथा कर्म बन्धन की जजीर को सर्वथा तोड कर मुक्त होने मे प्रत्येक प्राणी पूर्णत. स्वतन्त्र है। दुनिया की एक भी आत्मा किसी अदृश्य शक्ति के अधीन नहीं है और न वह कठपुतली की तरह किसी एक सूत्रधार या नट के इशारे पर नाचती ही है। प्रत्येक आत्मा अपने अच्छे या बुरे पुरुपार्थ से अपना रास्ता तय करती है और शुभाशुभ गतियो मे परिभ्रमण करती है तथा अपनी ही सम्यक् साधना से कर्म बन्धन को तोडकर निर्वाण को भी प्राप्त कर लेती है।