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पष्ठम अध्याय
आत्मा और परमात्मा में स्वामी और सेवक का भेद जैनो को स्वीकार नही है । जैन इस बात को नही मानते कि ग्रात्मा या जीव सदा ईश्वर का सेवक - गुलाम ही बना रहेगा। ईश्वर के निकट पहुच कर भी वह ईश्वर नही बन सकता, बल्कि सेवक ही रहता है और उस को इच्छा होते ही फिर से ससार मे भटकने के लिए इस दुनिया की ओर धकेल दिया जाता है । जैनो का दृढ़ विश्वास है कि प्रत्येक श्रात्मा परमात्मा स्वरूप है । आत्मा और परमात्मा के आत्म-स्वरूप मे कोई अन्तर नही है । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि उन्होने आत्मा पर लगे हुए कर्म ग्रावरण को अनावृत्त कर दिया है और हम अभी उस से आवृत्त है । परन्तु यह भी सत्य है कि जितनी भी ग्रात्माए परमात्मा बनी है, वे स्वयं अपने पुरुषार्थ से निरावरण हो कर ही बनी है और आज भी आत्मा सम्यक् पुरुषार्थं कर के परमात्मा वन सकता है । इस तरह आत्मा स्वतन्त्र है, सिद्ध अवस्था मे स्थित अनन्त आत्माए भी स्वतन्त्र हैं । वहा सव श्रात्मानो मे अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख एव अनन्त शक्ति समान रूप से है । समस्त सिद्ध शुद्ध आत्म ज्योति मे रमण करते रहते हैं । वहा ऐसा नही है कि एक स्वामी और अन्य सव दास हो और वह स्वामी जव चाहे तव उन्हे धक्का दे कर निकाल दे । सब श्रात्माए वहां समान रूप हैं और सदा के लिए शुद्ध आत्म स्वरूप मे स्थित है ।
इस दृष्टि से जैनागमो मे ईश्वर शब्द का प्रयोग नही किया गया। भगवान महावीर स्वामी सेवक की जघन्य एव सासारिक मनोवृत्ति के समर्थक नही थे । इसलिए उन्होने ईश्वरवाद को ज़रा भी प्रश्रय नही दिया । इस अपेक्षा से भले ही कोई जैनो को अनीश्वरवादी कह दे, इस मे हमे कोई आपत्ति नही है । और वैदिक विचारको ने जैनो को अनीश्वरवादी इसी अपेक्षा से कहा है - वे ईश्वर को जगत्कर्ता