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षष्ठम अध्याय
सकता । हम प्रत्यक्ष मे देखते हैं कि बिना हाथ-पैर हिलाए केवल इच्छा करने मात्र से ही कोई वस्तु तैयार नही हो जाती है । प्रत्येक वस्तु के निर्माण के लिए इच्छा-आकाक्षा के साथ तदनुरूप श्रम भी करना पड़ता है और श्रम के लिए शरीर का होना अनिवार्य है । इस तरह ईश्वर को भी सावयव मानना होगा । फिर उपनिषद् एव अन्य ग्रन्थो की यह मान्यता असत्य ठहरेगी कि परमात्मा न श्वेत है, न पीत है, न रक्त है, न कृष्ण है, न नील है, न भारी है, न हल्का है, न मोटा है, न पतला है, उसके कोई आकार नही है ।
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ईश्वर को ससार का, जगत का रचयिता मानने से यह भी प्रश्न उपस्थित होगा कि ईश्वर ने ससार का निर्माण क्यों किया ? यदि यह कहा जाए कि ईश्वर ने दया, करुणा से प्रेरित होकर ससार को बनाया । तो यह भी युक्ति-सगत प्रतीत नही होता । क्योकि दया- करुणा किसी दुखी एव सतप्त प्राणी पर की जाती है । परन्तु ससार का निर्माण करने के पूर्व तो दुनिया मे कुछ था ही नही । न कोई सुखी प्राणी था और न दुखी ही था । ऐसी स्थिति मे किसी पर करुणा एव अनुग्रह
करने का प्रश्न ही पैदा नही होता, जिस से प्रेरित होकर ईश्वर को ससार बनाने के कार्य मे प्रवृत्त होना पड़ा ।
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कुछ विचारको का कहना है कि ईश्वर अकेला था, उस का मन उदास हो गया । अत अपने मन को लगाने के लिए उसने यह इच्छा की कि 'मैं ग्रकेला हू, बहुत हो जाऊ' 8 और यह अभिलाषा करते ही एक विराट् ससार खड़ा हो गया। कितनी विचित्र मान्यता है । एक प्रोर तो यह कहा है कि ईश्वर मे इच्छा, अभिलाषा, कामना, वासना मादि विकार नही हैं, वह समस्त दोषो से रहित है और दूसरी तरफ
९ एकोऽहम्, बहुस्याम् ।
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