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प्रश्नो के उत्तर .......२५० ईश्वर नही बन सकता। स्वामी और सेवक का भेद सदा बना ही रहेगा।
जैन दर्शन इस विचारधारा को नहीं मानता है। इसी दृष्टि से जैनागमो मे ईश्वर शब्द का प्रयोग न करके सिद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, मुक्त, परमात्मा आदि शब्दो का प्रयोग किया है और इन शब्दो से जैन दर्शन की सैद्धान्तिक मान्यता स्पष्ट हो जाती है । 'सिद्ध' शब्द का अर्थ है- जिसने अपना लक्ष्य सिद्ध कर लिया है, अव उसके लिए कुछ भी करना शेष नही रहा है । अर्थात् आत्मा के पूर्ण एव शुद्ध स्वरूप को जिसने प्रकट कर लिया वह सिद्ध कहलाता है। सिद्धो मे ज्ञान की पूर्णता होती है,उनकी आत्मा पर ज़रा भी आवरण नही रहता,उनकी आत्मा अनन्त ज्ञान से युक्त होती है, इसलिए उन्हे बुद्ध भी कहते हैं। इस अवस्था मे जरा और मृत्यु का प्रवेश नही होता। क्योकि जरा और मृत्यु शरीर के साथ ही लगी हुई है और सिद्ध अवस्था मे शरीर का सर्वथा अभाव है, इसलिए वे अजर-अमर है। कर्मो से सर्वथा मुक्त होने के कारण मुक्त कहलाते हैं और सिद्ध अवस्था मे प्रात्मा का परम स्वरूप है-शुद्ध स्वरूप है अर्थात् यो भी कह सकते हैं कि परमात्मा वैदिक दर्शन को तरह कोई अलौकिक एव प्रात्मा से अलग शक्ति नहीं, बल्कि उन्होने आत्मा से ही परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त किया है, अपनी आत्मा पर लगे हुए कर्म-मल को सर्वथा दूर करके आत्मा की परम ज्योति को अनावृत्त कर लिया है,इसी अपेक्षा से उन की आत्मा को परमात्मा कहते
इससे स्पष्ट हो गया कि जैन दर्शन स्वामी और सेवक की गुलामी की भावना को नही स्वीकार करता। वह आत्मा को किसी दैवी या ईश्वरीय शक्ति के अधीन परतन्त्र नहीं, बल्कि पूर्ण स्वतन्त्र मानता है। प्रत्येक आत्मा अपने जीवन की स्वतन्त्र निर्माता है ।