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प्रश्नों के उत्तर
२४४ परपरा की गयो न हो। यदिगोजन भी मोर उसमें धर्म के नाम पर हिगामूलक अनुक्ति को प्रथम देता है. नो र मग पाँ दष्टि में यह भी अगत्य जैन दर्शन पति एवं प्रदायोटि म सत्यता-प्रसत्यता को नहीं मानता. उगती मागनामित प्राधार एव सस्य और प्रतिमा की नीव पर मियत
वेदो में जो अछाई, उग जैन दर्शन मानता, परन्तु, जा असत्यता है उस वह नहीं मानता। जैसे जैन दर्शन वेदी को अपारपत्र नहीं मानता,याज्ञिक हिंसा या वैदिक हिमा, हिमा नहीं होता सिद्धान को नही मानता । वह इस बात को भी सत्य नहीं मानता शिविर जगतकर्ता है, भाग्य विधाता, कर्म पान प्रदाता है । वह प्रात्मा ने म्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करता है। प्रात्मा स्वय हो कम करता है और वही कृत फर्म का फल भोगता: पोर वही गम बन्धन या तोड कर मुक्त बनता है। स्वर्ग या नरक में जाने का प्रच्या या वृता परुपार्य वही करता है। ईश्वर किसी के कार्य में दखल नहीं देता। वह न किमी को स्वर्ग भेजता है और न किसी को नरक के गड्ढे में हो गिराता है। यदि वस्तुत. देखा जाए तो वेदो का अपारपेध कहना, यानिक हिंसा, ईश्वर कर्तृत्व प्रादि वात युक्ति एव बुद्धि संगत भी नहीं है। इसी कारण जेन दर्गन वेदों को प्रामाणिक नहीं मानता है।
यह स्पष्ट है कि मनुष्य जव साप्रदायिकता के रग म रग जाता है, तो धर्म फीका पड़ जाता है। या यों कहना चाहिए कि साप्रदायिकता की कालिमा मे धर्म की उज्ज्वलता दव-सी जाती है । सांप्रदायिक मात्यताए ही धर्म का बाना पहनकर सामने आने लगती है और इसी कारण मानव 'सत्य सो मेरा' के वास्तविक आदर्श को भूलाकर 'मेरा सो सत्य' के नारे को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है। मौर
नहीं है ।
कि मनुष्य जब
साहिए कि साप्रदायिकता