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पञ्चम अध्याय इस से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनका मानस संकीर्ण स्वार्थों से आवृत्त था। . जैन दर्शन को वेद एव वैदिक परम्परा से द्वेष नही है। वैदिक परम्परा के-- “अहिसा परमो धर्म.", "मा हिस्यात् सर्वानि भूतानि " आदि अहिंसा के समर्थक वाक्यो का जैन सम्मान के साथ स्वीकार करते है। केवल स्वीकार ही नहीं करते, बल्कि उन का परिपालन भी करते है । उनके मन में यह द्वेष नहीं है कि अमुक वाक्य वेद का है, इसलिए उसे स्वीकार नही किया जाएं । प्राचार्य हरिभद्रं मूरो ने स्पष्ट शब्दो मे कहा कि न तो मुझे महावीर से मोह है और न कपिल आदि वैदिक ऋपियो से मेरा द्वेप है । मै तो युक्ति सगत. सत्य एव निर्दोष वचनो को स्वोकार करता हूं। सत्य एवं अहिंसा से 'प्रोत-प्रात वाक्य चाहे जैनागमो के हो या वेदो के हो या किसी अन्य परपरा के भो क्या न हों, मुझ स्वीकार है । इतनी बडी बात जैनो के सिवाय अन्य किस भी दार्शनिक ने नही कही। ...
हम स्याद्वाद प्रकरण मे स्पष्ट कर चुके है कि जैन दर्शन का ध्येय समन्वय का रहा है। उसने सदा अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। उसे एकान्तवाद कतई स्वीकार नहीं है। वह वैदिक परम्परा के एक प्रात्मवाद, नित्यवाद को भा आशिक रूप से सत्य मानता है और वौद्ध परम्परा के द्वारा मान्य क्षणिकवाद मे भी आशिक सत्यता को देखता है। उसकी दृष्टि में कोई भी दर्शन सर्वथा असत्य नही है. यदि वह एकान्तवाद का आग्रह न रखता हो। इस से स्पष्ट हो जाता है - कि जैन दर्शन का व्यक्तिगत किसी भी परम्परा से द्वेष नहीं है। वह किसी व्यक्ति या विचारक का तिरस्कार नहीं करता है । हा, एकान्तता एव हिंसामूलक प्रवृत्ति को स्वीकार नहीं करता, चाहे वह किसी भी