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पञ्चम अध्याय मे मिथ्यावाद एव नास्तिक मान्यता है ।।
यह हम ऊपर देख आए हैं कि व्याकरण की दृष्टि से आस्तिकनास्तिक का यह अर्थ किसी भी तरह घटित नहीं होता। इस से यह स्पप्ट प्रमाणित होता है कि इस परिभाषा की रचना के पीछे सत्यता, प्रामाणिकता एव ईमानदारी के स्थान मे साप्रदायिकता का खुला हाथ रहा है और वह भी सप्रदाय विशेष का तिरस्कार करने की दृष्टि से इस परिभापा को बदला गया है । प्राधुनिक विद्वान इस बात से सहमत है कि इस परिभाषा को बदलने के पीछे साप्रदायिक विद्वेष को भावना ही मूल कारण है।
वैदिक परम्परा का विश्वास है कि वेद अपौरुषेय है, मनुष्य इस का रचियता नहीं है। इस का निर्माण भगवान ने किया है, किन्तु जैन परम्परा इस बात को नहीं मानती। जैन परम्परा प्रत्येक शास्त्र को पुरुषकृत मानती है और वह वेदो को सर्वथा प्रामाणिक रूप से स्वीकार नही करती है । वेदो के नाम से की जाने वाली पशु हिंसा तथा
मायावादी वेदाती (शकर भारती)अपि नास्तिक एव पर्यवसाने सपद्यते इति नेयम् । अत्र प्रमाणानि सास्यप्रवचनभाप्योदाहृतानि पद्मपुराणवचनानि यथा---
मायावादमसच्छास्त्र प्रच्छन्न बौद्धमेव च । मयैव कथितं देवि कलौ ब्राह्मणरूपिणा !! अपार्थ श्रुतिवाक्याना दर्शयल्लोकगर्हितम् । कर्मस्वरूपत्याज्यत्वमत्र च प्रतिपाद्यते ।। सर्वकर्मपरिभ्रशान्नैष्कम्यं तत्र चोच्यते ।
परमात्मजीवयोरक्य मयात्र प्रतिपाद्यते ॥ --सास्य प्रवचन भाष्य, १, १, न्याय कोश, पृ ३७२।