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'चतुर्थ अध्याय
से बचा सकते हैं । और बडे-बडे सगोधक ( Research Scholar) ऐसा ही करते हैं । साहित्यकार का मत कहा तक सही या गलत है, इस बात को वे ऐतिहासिक एव साहित्यिक प्रमाण दे कर स्पष्ट कर देते है । परन्तु, वर्मा जी ने प्रस्तुत प्रसग पर कोई टिप्पण नही दिया । वे इस बडे भारी असत्य को कैसे स्वीकार कर गए, यह हमारी समझ मे नही ग्राया । ग्राज इतिहास का साधारण पाठक भी इस बात को जानता है कि भगवान पार्श्वनाथ और नेमिनाथ का युग तो छोडिए, भगवान महावीर का युग भी मत्स्येन्द्रनाथ से १२ सदी पहले का है । हम यह नहीं मान सकते कि यह भूल वर्मा जी के ध्यान मे नही आई हो । हा, यह हो सकता है कि उन्होने सोचा हो कि जैनो मे कोई विरोध करने वाला तो है नही, जो दिल मे आए सो कह एव लिख जाओ । इससे यह स्पष्ट होता है कि वर्मा जी के मन मे जैन धर्म के
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प्रति उपेक्षा एव तिरस्कार की भावना रही है । और यह मनोवृत्ति एक रिसर्च स्कॉलर के लिए बहुत बड़ा दोष एव कलक है। क्या वर्मा जी इस कलक को धो सकेंगे ?
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दूसरे मे जैन समाज की भी एक कमजोरी है कि वह अभी तक इतने बड़े भारी असत्य को अनावृत्त करके नही रख सकी है। किसी भी जैन विद्वान या विचारक ने इस का खुल्ला विरोध नही किया है । जेन विचारको का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वर्मा जी को उनकी भूल से सावधान करके उसे सुधारने के लिए प्रेरित करे तथा जनता के मनमस्तिष्क से उस झूठ को निकालने के लिए उसे वास्तविक स्थिति से परिचित कराए और प्रस्तुत प्रकरण में उक्त उद्धरण की असत्यता को स्पष्ट करने वाली टिप्पण लगाने के लिए लेखक एव प्रकाशक को प्रेरित करे । इस तरह का प्रयत्न नहीं किया गया तो साप्रदायिक