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प्रश्नों के उत्तर
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हू, राग-द्वेष के ससर्ग के कारण मेरी आत्मा वार-बार जन्म मरण करती है। । ग्रात्मा ही सुख दुःख का कर्ता एव भोक्ता है, श्रात्मा ही वंतरनी नदी तथा कूटशामिली वृक्ष - नरको मे प्रवहमान दुखद नदी एव वृक्ष को प्राप्त करता है और वही कामधेनु के सुख का उत्पादक है । वन्धन और मुक्ति को प्राप्त करने वाला आत्मा ही है ।
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ससारी आत्मा के एक गति से दूसरी गति मे परिभ्रमण करने के सबध मे भी जैनागमो मे पाठ मिलता है । जैसे गीता मे कर्मयोगी श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा- हे अर्जुन ! जिस ग्रविनाशी योग के सबध मे मै तुम्हे जो बता रहा हू, मैंने इस का सर्वप्रथम उपदेश विवस्वत को दिया था, उसने अपने पुत्र मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को दिया था । तव अर्जुन ने पूछा- भगवन् । श्रापका जन्म तो श्रव हुआ है और विवस्वत का जन्म आप से बहुत समय पहले हो चुका है, फिर आपने उसे इस योग का उपदेश कैसे दिया ?
इसका उत्तर देते हुए कृष्ण ने कहा- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे इस जन्म के पहले अनेकों जन्म हो चुके हैं । तू इस बात को नही जानता है, परन्तु मै इसे भली-भाति जानता हू । §
इसी तरह भगवान महावीर ने भी गौतम से कहा कि हे गौतम । तेरा और मेरा बहुत काल से अर्थात् अनेक जन्मो से संबंध चला था रहा है, तू मेरा पुराना परिचित है । भगवान महावीर के
१ श्री आचाराग सूत्र १, १, ५ ।
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उत्तराध्ययन सूत्र २०.
बहूनि मे व्यतीतानि, जन्मानि तव चार्जुन । तान्यह वेद सर्वाणि न त्वं वेत्य परतप ॥ -श्री भगवद्गीता, ४, ५ ।
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