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अन्नो के उत्तर
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उपदेष्टा तो स्वत: ही अनादि अनन्त सिद्ध हो जाते हैं। और जब जैन धर्म के आगम-एव-आगमों के उपदेष्टा अनादि काल से विद्यमान हैं, तब फिर धर्म को अनादि काल से मानने मे टाका - संजय को जरा भी प्रत्रकाण नही रह जाता है ।
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परन्तु,
- त्रैकालिक सत्य के उपदेश एव उपदेण्टा की अपेक्षा से जैन धर्म अनादि काल से चला आ रहा है । इसलिए इसके उद्भव काल एव संस्थापक का पता लगाना असंभव है । उसी वस्तु का उद्भव स्रोत ढूंढा जा सकता है, जिसका निर्माण किसी काल विशेष मे हुआ हो । जो अनादि काल में प्रवहमान है, उसका ममय खोज निकालना इन्सान की शक्ति से बाहर है। फिर भी क्षेत्र, एव काल की अपेक्षा से हम धर्मोपदेशक का समय निकाल सकते है। जैन धर्म मे काल की - गणना उत्सर्पिणी - श्रवसर्पणी की अपेक्षा से की जाती है । उत्स-पिणी में मनुष्य आदि का शरीर, ग्रायु, शक्ति प्रादि बढती है और अवसर्पिणी में इन सबका ह्रास होता है । प्रत्येक उत्सर्पिणी और अव सर्पिणी दस कोटा - कोटि सागरोपम की होती है । और उत्सर्पिणी एव 'अवसर्पिणी के मिले हुए २० कोटा- कोटि सागरोपम के काल को एक काल चक्र कहते हैं । "ससार मे ऐसे अनन्त अनन्त काल चक्र वीत चुके है और बीतते जा रहे हैं। वर्तमान काल चक्र मे भी अवसर्पिणीःकाल का पञ्चम आारा चल रहा है । इस काल के तीसरे आरे के प्रतिम भाग मे अर्थात् करीव एक कोटा -कोटि सागरोपम, पूर्व इसी भरत क्षेत्र मे भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ था । ये इस काल, और इस क्षेत्र की अपेक्षा से पहले तीर्थंकर या धर्मोपदेप्टा थे । उन्होने यहा सब से पहले चार तीर्थ की स्थापना की, धर्म का मार्ग बताया. उनके बाद, २३ तीर्थकर और हुए, जिन्होंने उसी त्रैकालिक सत्य - प्राचार और विचार रूप
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